मैं गाँव बोल रहा हूँ | क्यों ! आप लोग मुझे जानते तो होगे ना | मैं क्यों बोल रहा हूँ , कैसे बोल रहा हूँ ? इस समय ये सवाल करना बेफिजूल है | मैं क्या बोल रहा हूँ सुनने की जरुरत है इस समय |
मुझमें कभी पूरा देश बसता था , मेरा नाम कहानीकार की कहानी में आया करता है , नहीं!! आया करता था , मेरे बारे में उपन्यासकारों के उपन्यास में बहुत उल्लेख किया जाता था | कई बार मुझे हिंदी फिल्मो के पर्दों पर भी काफी नाटकीय ढंग से दिखाया गया है| खासकर पुरानी राजश्री की फिल्मो में बडजातिया ने मुझे अपनी फिल्मो मे दिखाया है ,तो प्रेमचन्द्र जैसे लेखको ने मुझ पर , मेरी दशापर कई कालजयी कहानी-उपन्यास लिखे हैं |
क्या हुआ नहीं पहचाना ? शायद तुम लोगों ने पुरानी फिल्मो को नहीं देखा है , प्रेमचन्द्र के उपन्यासों को नहीं पढ़ा है |
उफ़ ये आजकल की जनरेशन !! अच्छा सुनो , अब समझ जाओगे , मैं वो हूँ जिसकी तश्वीरे आजकल कई लोगों की फेसबुक-वट्सएप्प या फिर इन्स्टाग्राम की रंग-बेरंगी दीवारों पर लटकी रहती है | कैप्शन जोड़ते हुए लोग शायरी-शायरियां लिखते हैं या फिर कॉपी-पेस्ट करते हैं , और मुझे याद किया करते हैं, (ऐसा उनका मानना है )| मैं अपने इस भ्रम को नहीं मिटाना चाहता , लेकिन जब ये लिखते हैं कि “फलाना मेरा गाँव था ” तो मुझे बुरा तो नहीं लगता लेकिन सच कहूँ तो अच्छा भी नहीं लगता |
मैं अब बस लोगों की जुबान पर तभी आ पाता हूँ , जब उनसे कोई उनके जन्मस्थल के बारे में पूछते हैं |
सालो पहले मुझमे एक रौनक थी , एक चमक हुआ करती थी , मेरी गलियों में बच्चों का बचपन दौड़ा करता था ,धुल भरे मैदानों में जब कोई खेलता था , तो मिटटी और चमड़ी एक ही रंग में रंग जाती थी | खलिहानो में उपजे अनाज की फसलो को हवा गुदगुदाया करती थी | आम- अमरुद जैसे फलों के बगीचे जहाँ आपस में गप्पे लडाते हुए ठहाका मारते थे ,तो फूलों-सब्जियों की क्यारियाँ दिन-भर, गाँव भर चुगली करती रहती थी | सहर होते ही ,जहाँ आसमान में चिड़ियों की चहचहाहट का सुरीला शोर शुरू हो जाता था तो पीले सूरज की चिलचिलाती धूप पड़ते ही, चरवाहे अपने मवेशियों को लेकर , दरख्तों की छाँव ढूंढना शुरू कर देते थे | फिर गाँव-घर की ओर वापस चलना शुरू कर देते थे | खलिहानों के बीचो-बीच गुजरती पगडण्डी पर राहगीर गुजरा करते थे | मुझमे हमेशा एक चहल-पहल बनी रहती थी | एक मौज सी छाई रहती थी |
अब मेरी गलियों में खेलने वालो बच्चे बड़े हो गये हैं | मेरी गलियां उन्हें तंग करती हैं वो क्या है न उनकी मोटरसाइकिल नहीं आ पाती हैं| इनकी हर शरारते जहाँ माफ़ हुआ करती थी आज वहां इनकी शिकायते बढती जा हैं | मैं इनसे नाराज नहीं हूँ , बल्कि ये खुद रूठ के मुझसे खुद शहर के किसी कोने में पड़े हैं | कहते हैं कि मुझमें अब कुछ भी नहीं रहा हैं | अपने लिए रोजी नहीं है , परिवार के लिए रोटी नहीं है , बीमार के लिए दवाई नहीं है , बच्चो के लिए पढाई नहीं हैं , और कहीं आने-जाने के लिए गाडी नहीं है | कुछ है तो बस गाँव का नाम, गाँव के चारों ओर का बीहड़ जंगल, जहां से जंगली जानवरों का आने डर हर वक्त रहता है | शायद इसलिए ये लोग मुझसे नाता तोड़कर मुझसे दूर हो रहे हैं | और मेरे पास अपने बूड़े माँ-बाप और उंनका बुढ़ापा छोड़ रहे हैं |
इसलिए मुझमे भी आज झुरियां आ गयी हैं | लोग मुझसे दूर-दूर जा रहे हैं |
मुझे अपनी इस हालत का उतना गम नहीं है, जितना कि यहाँ रहने वाले लोगों की हालत का दुःख है | यहाँ बचे-खुचे बड़े-बुजुर्ग , अब बूड़े कहलाते हैं | जो अपने लडको की आने राह में अपनी आँखे बिछाए रहते हैं| वे जानते हैं कि अब कोई लौट के नहीं आयेंगे , लेकिन फिर भी इनकी आँखे ,खेतो के बीचों-बीच से जाती पगडण्डी पर , अपने बच्चो को ढूँढती रहती हैं |
जो कल तक घर था , आज सिर्फ मकान रह गया है| जिसके कमरों पर लगे तालों पर जंग लगती जा रही है | घर के आँगन में , जंगली घास धीरे-धीरे अपना आशियाना बना रही है| दीवारों पर दरारे गहरी होती जा रही हैं |
त्योहारों पर वे कभी , शहर से छुट्टी लेकर घर आते थे , कुछ दिन के लिए ही सही लेकिन मेरी रौनक वापस आ जाती थी | अब सुना है , शहर में ही होली-दिवाली खेला करते हैं | लेकिन आज यह घर , घर के कमरों पर लगे ताले , उनको खाने के लिए आते हैं |
मैं जानता हूँ , मुझमे कमियां थी और हैं , जो समय के साथ निरंतर बड़ती ही गयी | इन कमियों को सुधारने में सरकार ने बहत देर लगा दी | जब गाँव में पूरी तरह सडक , बिजली , स्कूल पहुँचती , तब तक गांव के लोगों को शहर की हवा लग गयी थी | गाँव में सडक आने से अब ज्यादा लोग शहर जा रहने लगे हैं | शहर नजदीक हो तो , शनिवार-इतवार को कभी-कभार घर आया करते है , नहीं तो वही साल की दिवाली-होली …..|
मैं शहर से किसी प्रकार की ईर्ष्या नहीं रखता हूँ , न ही मेरी कोई दुश्मनी है | मैं तो खुश हूँ कि शहर ने इन गँवार लोगों को उन्नत-समृद्ध बनाया है | समय के साथ , तेजी से बदलती ही दुनिया के साथ चलना सिखाया है | इनको एक नयापन दिया है , एक नई परिभाषा दी है , जिससे हर कोई पहचाना जाता है | मुझे उस वक्त बहुत बुरा लगता है , जब मैं देखता हूँ , कि लोग गलत संगत-आदतों के शौक़ीन हो रहे हैं | मुझे शहर की माया से शिकायत है | माया, जिसने युवाओं के हाथो से किताबे -कलम को छीन कर , उनके हाथो में शराब , गांजे और भांग की पुडिया के साथ बंदूके पकड़ा दी हैं | माया , जिसने उम्र का लिहाज करना पूरी तरह भुला दिया है , रिश्तो की शर्म को खत्म कर दिया है |
मुझे शहर की इस माया से शिकायत है , जिसके जाल में धीरे-धीरे मैं भी फंसता नजर आ रहा हूँ | क्योकि गाँव को शहर से जोडती हुई सडक के रस्ते , माया की छाया मुझ तक भी पहुँच चुकी हैं | वेद-विज्ञान पढने वाले युवाओं के हाथो में रंगीन पानी की के पारदर्शी गिलास मुझे नजर आ रहे हैं , जिन उँगलियों में कलम फंसी रहती थी , उन उँगलियों को सिगरेट की अलग-अलग किस्मों ने फंसा रखा है | वही बच्चे उम्र का लिहाज करना , यहाँ भी बिसरते दिख रहे हैं | रिश्तो की शर्म का गला यहाँ भी दबाया जा रहा है | यहाँ भी फूहड़ और अश्लील गानों पर नाच शुरू हो गया है |
शहर में रहना , एक शौक से शुरू हुआ था , जो आज हर परिवार की जरुरत-मजबूरी सा बन गया है | शहर जो दिन-रात जागा करता है ,न खुद सोता है , न ही किसी को सोने देता है | कुछ सिर्फ अपनी जरूरतों को भरने में जागे हुए हैं , तो कुछ अपने रंगीन सपने पूरे करने में जुटे हुए हैं | ये रंगीन सपने वे है , जो खुद शहर ने अपनी माया से उन्हें दिखाए हैं |
शहर के शौक की वजह से आज हाल ये हो गया है कि मेरा शोक मनाना शुरू हो चुका है |
………………………………….और भी बहुत है कहने को ,लेकिन आज इतना ही | क्योकि कम बाते , जल्दी और ज्यादा समझ में आती हैं |
तुम्हारा गाँव
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पुन
बहुत सुन्दर