बच्चों का खेल V/S बिमला ताई के खेत

वक्त बदलने में देर नहीं लगती बस थोडा सा वक्त लगता है, और वक्त के बदलने के साथ जो  सबसे अच्छी चीज  बदलती है , वह है मौसम | मौसम का बदलना हमारे पूरे जीवन पर प्रभाव डालता है | हमें अपना खान-पान, रहन-सहन और बात-बर्ताव का तरीका मौसम के अनुसार ही तो बदलना पड़ता है |

सभी लोग मौसम के बदलाव के अनुसार अपने आप को ढालने की कोशिश करते हैं लेकिन गाँव के बच्चों के लिए मौसम के बदलने का मतलब खेलने के नए बहाने मिलने जैसा होता था  | हर बार की तरह मौसम जब गर्म होने लगता तो , स्कूलों की छुटियाँ पड़ने से सिर्फ घर वाले ही नहीं, बल्कि  गाँव वाले भी परेशान होने लगते |

बच्चो की एक ख़ास बात होती है जो उन्हें सबसे अलग बनाती  है, वे एक काम में अगर घुस गये तो घंटो उसी काम को करने में बिता सकते हैं | और काम अगर सिर्फ ‘खेलने’ का हो तो इसमें बिना थके पूरा दिन निकालना उनके लिए आम बात हो जाती है |

उन दिनों गाँव के पास के प्राइमरी स्कूल में शाम को खेलना अक्सर होता रहता था लेकिन गर्मियों की छुट्टियों में पूरा दिन यहाँ खेलना रोज का काम हो जाता था |

उन दिनों किसी को बुलाने की जरुरत नहीं होती थी , सभी एक निश्चित टाइम के आस-पास पहुँच जाते थे | ज्यूँ दिन का सूरज सर चढने लगता , खेल का रोमांच उतना गहरा होता जाता | गर्मी के बढ़ने से जब पसीना बहने लगता , तब खेलने से ज्यादा जीतना जरुरी हो जाता | अब मौसम के साथ माहौल  भी गर्म हो जाता था | इसलिए ऐसे माहौल में गरमा-गर्मी और गहमा-गहमी बढ़ जाती थी | और  दिन की यह गहमा-गहमी शाम के खेल में जीतने के जूनून में काम आती थी | खेल वहीँ से शुरू होता , जहाँ दोपहर में अधूरा छूटा था |

गाँव के प्राइमरी स्कुल के नीचे कई सारे खेत थे जिनमे से ऊपर के 4-5 खेत पड़ोस के गाँव में रहने वाली बिमला ताई के थे |  

इन दिनों गाँव के खेतो में निराई-गुड़ाई  का काम चल रहा होता था | गाँव के चारो ओर के खेतों में गाँव की महिलायें काम कर रही होती थी | भले ही ,वक्त के साथ मौसम और पता नहीं क्या-क्या बदलता है, लेकिन कुछ चीजे हैं जो बिलकुल भी नहीं बदलती | इनमे गाँव  की महिलाओं का साल भर काम करना भी है ,जो कभी नहीं बदलता | जैसे बदलता मौसम बच्चों के लिए खेलने के नए बहाने लाता है , वैसे ही यह बदलता मौसम गाँव की औरतों के लिए काम करने की नई वजह भी दे जाता है | इनका जीवन घर से खेत और खेत से जंगल और जंगल से होकर वापस घर तक ही सीमित रहता है | अपने इस सीमित जीवन में लगातार असीमित काम करना, आज तक कोई वक्त नहीं बदल पाया |

पहाड़ की और औरतों की तरह बिमला ताई भी सुबह खेत में चली जाती और दोपहर में वापस आने के बाद शाम को फिर खेत चली जाती | नीचे खेत में बिमला ताई निराई कर रही होती और ऊपर स्कुल में क्रिकेट का खेल शुरू हो चुका होता | ताई जब भी किसी को देखती , वो उनको खेत में गेंद ढूंढने की वजह से फसल के नुक्सान के लिए  डांटती | बच्चे ताई की डांट से डरते थे , लेकिन  सिर्फ इतना कि उन्होंने खेत में गेंद जाने पर आउट रखा था | गेंद एक बार खेत में चली गई तो उसे वापस लाया जा सकता था | ताई डांटती जरुर थी , लेकिन उनकी डांट सालों से एक ही तरह की होने से , बच्चों को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था |

फर्क पड़ता था!! तब, जब बिमला ताई की दोनों बेटियां भी खेत में साथ रहती |

एक बार दिन के समय गेंद खेत में गिर गयी , बच्चे जब गेंद लेने के लिए खेत में पहुंचे तो खेत में ताई और उसकी दोनों बेटियां थी | हम अकसर जिस बात के होने से सबसे ज्यादा डरते हैं , हमारे साथ वो बात होकर रहती है |  ताई जब भी अकेली होती तो वह गेंद दे देती थी , लेकिन उनकी बेटियां बहुत तेज़ थी , उन्होंने पहले भी बच्चों की बहुत सारी गेंदों को छिपा दिया था | इनके होते हुए , बच्चो को कभी-भी गेंद दुबारा से वापिस नहीं मिलती |

बच्चे दोनों दीदियों के सामने बहुत गिडगिडाते , गेंद वापिस लाने के लिए कई वादे करते , माँ-पापा , कुल देवी-देवताओं  की कसमे खाते कि अब से गेंद खेत में नहीं डालेंगे | लेकिन दोनों बहिने जानती थे कि  ये वादे और कसमे झूठी हैं ,बच्चे इन्हें नहीं निभा पाएंगे , इन्हें वे आसानी से तोड़ देंगे | इसलिए गेंद को वे छिपा देते | वे  बच्चों को अपनी बातों में उलझाए रखती | बच्चे हर बार इसी आस में रहते कि दीदी , गेंद को वापस दे देंगी लेकिन उनके वादों और कसमे की तरह ये ‘आस’ भी झूठी ही रहती |

ये बात सभी जानते थे कि इन छुट्टियों में बच्चों के पास स्कुल में खेलने के आलावा और कोई विकल्प नहीं है | जब तक वे यहाँ खेलते रहेंगे , गेंद खेत में गिरती रहेंगी | गेंद को वापस लाने के लिए खेत में छलांगे लगती रहेंगी | और छलांगो की वजह से , बड़ी मेहनत और कड़ी धूप में खड़ी हो रही नन्ही फसल को नुक्सान पहुँचता रहेगा |

 उन्हें लगता कि वो इस धूप में जिस मेहनत से इस खेत की सूरत को सुधारने में लगे हैं , ये बच्चे खेत में गेंद फैंककर , खेत के निखार को नुकसान पहुंचा रहे हैं |

और उनके होते हुए वे ऐसा होने बिलकुल भी नहीं देंगी | ऐसे में जब गेंद वापिस नहीं मिलती तब सुबह के खिले हुए चेहरे , मुरझाकर वापिस घर आने लगते | ऐसे दिनों में कभी खेल पूरा नहीं होता था , कौन सी टीम जीती है इसका फैसला नहीं हो पाता | ऐसे दिनों में जीत बिमला ताई की बेटियों की होती , क्योंकि जीत की मुस्कुराहट उनके चेहरों को खिला रही  होती | घर लौटते वक्त जीत के जश्न का जिक्र उनकी बातों में होता |

इधर बच्चों की ये मायूसी ज्यादा देर तक नहीं रहती थी , घर पहुँचते ही खाना और डांट, दोनों साथ में खाने के बाद दोपहर के खत्म होने से पहले और शाम के शुरू होने से पहले , नई गेंद खरीद कर खेलने पहुँच जाते | नई गेंद का नया रंग , बच्चों के चेहरों पर चमकता हुआ साफ़ दिखता था | नई गेंद के साथ नई ऊर्जा और उत्साह के साथ फिर से खेल शुरू हो जाता |

इधर बिमला ताई की दोनों बेटियां जब देखती कि बच्चे फिर आ गये हैं , तो कल की जीत उन्हें ,उनकी गलतफ़हमी लगती | वे बच्चो के इस खेल को हमेशा के लिए बंद करना चाहती लेकिन गेंद छिपाने के आलावा कुछ ख़ास कर नहीं पाती |

बच्चों का खेल और गेंद छिपाने का यह सिलसिला पूरी गर्मियों की छुट्टियों में यूँ ही चलता रहता |

महीने भर की छुट्टियों के बाद ये सारे बच्चे जब बेमन से स्कूल पहुँचते , तो सबसे पहले आस-पास के सभी गाँवों की अपनी इंटर कॉलेज में बिमला ताई के इकलौते बेटे को ढूंढते | बिमला ताई की बेटियां गेंद छिपाकर , अकसर अपने छोटे भाई को दे देते थे | स्कूल खुलते ही जब बिमला ताई का बेटा उनकी सारी गेंदे वापस दे देता ,तो छुट्टियों में खोई हुई गेंदों का दुःख कम हो जाता और बदले में एक-दो गेंदे वे बिमला ताई के बेटे को भी दे देते थे |

यह सिलसिला बहुत सालों से चलता आ रहा था , शायद आगे भी  यूँ ही चलता रहता अगर, वक्त नहीं बदलता |

वक्त की सबसे अच्छी और बुरी बात यह है कि यह बदलता है , इस बार जब वक्त बदला तो , ये खेतो में गेंद लाने के लिए छलांग मारने वाले बच्चे  बड़े हो गये | गाँव की गलियों में दौड़ने वाले ये बच्चे, अब शहर की सडको पर रेंगने लगे हैं | बच्चे जब बड़े हुए तो अपनी बेपरवाही को भी अपने बचपन के साथ गाँव में छोड़कर, शहर चले गये हैं | चेहरे पर पहले की तरह बेपरवाह की मुस्कराहट  की जगह अब माथे पर जिम्मेदारियों के बोझ से खिंची लकीरे पड़ गयी हैं |

इस बार वक्त बदला तो बिमला ताई के खेत को नुकसान पहुँचाने वाले बच्चे गाँव में नहीं थे और न ही बिमला ताई की बेटियाँ | शादी के बाद उनका मायके की तरफ आना जाना कम हो गया |

बिमला ताई घर में अकेली ही रहा करती हैं , अपने अकेलेपन से बचने के लिए खेतो में हाथ-पाँव चलाती रहती है | गाँव की प्राइमरी स्कूल बच्चों के कम होने की वजह से बंद हो गयी है| स्कूल जो सुबह को  बच्चो के पढने और शाम को उनके खेलने  की वजह से व्यस्त रहता था , उसपर पर बोरियत की झुरियां पड़ने लगी हैं | पहले गाँव में शान्ति हुआ करती थी अब  सन्नाटा छाया रहता है |

बिमला ताई आज भी प्राइमरी स्कूल के खेतो में निराई-गुडिया का काम करने जाती है | इन खेतो में काम करते हुए , गाँव के बच्चों को याद करती , उनके और अपनी बेटियों की बीच नोक-झोंक याद करती रहती | बिमला ताई इन यादों और एक अफ़सोस के सहारे जीती है | अफ़सोस यह कि अब बंदर-लंगूर और सूअर आदि जंगली जानवर फसल को बर्बाद करने में कोई भी कसर नहीं छोड़ते हैं और इनका मुकाबला करने के लिए गाँव में कोई नजर नहीं आता |

आज के वक्त को देखते हुए , इस कहानी को लिखा जाय तो इस कहानी का नाम ‘बिमला ताई के खेत बनाम बंदर-लंगूर और सूअर’ होता जिसमे आपको जंगली जानवरों को बाज़ी मारते हुए देखते …|

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