पहाड़ के लोकजीवन की गाथा सुनाने वाली एक किताब : मेरी यादों का पहाड़

हम सभी अपनी मातृभूमि से प्यार करते हैं और प्रकृति की गोद में जन्म लेने पर गर्व करते हैं | एक समय था जब हमें , पहाड़ी कहकर चिढाया जाता था , हमें तुच्छ समझा जाता था | लेकिन आज के समय में अपने आप को पहाड़ी कहकर सभी गर्व महसूस करते हैं , ऐसा आज की पीढ़ी फेसबुक , इन्स्टाग्राम पर उनकी प्रोफाइल में देखने को मिलता है | आज की पीढ़ी , अपने आप को पहाड़ी कहने का दिखावा तो करती है लेकिन पहाड़ के लोकजीवन को वो न जानते हैं और न उससे उन्हें कोई लगाव है |

पहाड़ की संस्कृति बड़ी अनोखी रही है | जब भी पहाड़ के लोकजीवन की बात आती है तो यहॉ की विषम भौगोलिक परिस्थिति, नागरिक सुविधाओं का अभाव तथा देवभूमि की अपनी मान्यताऐं, परम्पराऐं व आस्थाऐं लोकजीवन को ज्यादा दिलचस्प बना देती हैं | मेरी यादों का पहाड़ किताब आज से 10 साल पहले प्रकाशित की तो गयी थी , लेकिन जानकारी के अभाव में पाठको तक पहुँच नहीं पायी है |

मेरी यादों का पहाड़

लेखक के बारे में :- देवेन्द्र मेवाड़ी

मेरी यादों का पहाड़: देवेन्द्र मेवाड़ी
देवेन्द्र मेवाड़ी

इनका जन्म नैनीताल के कालाआगर गाँव में 1944 में हुआ था | ये साहित्य के साथ -साथ विज्ञानं भी लिखना पसंद करते हैं इनकी अन्य किताबें कथा कहो यायावर , पाठको के बीच बहुत प्रचलित है | पत्र-पत्रिकाओं के साथ रेडिओ और टेलीविजन के लिये भी इन्होने लेखन का काम किया है | करीब 30 किताबें लिख चुके हैं और राष्ट्रीय पुरुस्कारों से समानित भी हुए हैं |

मेरी यादों का पहाड़ : परिचय

“मेरी यादों का पहाड़ ” एक ऐसी पुस्तक है जिसकी पढने की शुरुआत चन्द लाइनों से की तो अन्त तक पढ़े बिना स्वयं को नहीं रोक पायेंगे|

दरअसल कोई 7-8 वर्ष पूर्व नैनीताल समाचार ने एक स्तम्भ प्रारम्भ किया था – मेरा मेरी यादों का पहाड़ नामक पुस्तक यूँ तो 2013 में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित की गई थी | लेकिन पुस्तक की बढती लोकप्रियता ने इसकी मांग को बढाया , जिसकी वजह से 2019 में इसे दुबारा प्रकाशित की गई | देवेंन्द्र मेवाड़ी जी खुद पहाड़ के रहने वाले है , इसलिए उनके इस संस्मरण में उनके जीवन के साथ पहाड़ की संस्कृति भी जानने को मिलती है |

लेखक के बचपन के मासूम अनुभवों के बहाने पाठको को इस किताब में पहाड़ी लोकजीवन का वह समग्र रूप देखने को भी मिलता है | ऐसा किसी दूसरी किताब में मिल पाना संभव नहीं |

इस किताब की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह किताब उन पाठको को अंदर तक गुदगुदाती है जिन्होंने स्वयं पहाड़ का जीवन जिया है | साथ ही जिन्होंने पहाड़ को देखा तक नहीं उन्हें पहाड़ के लोकजीवन व लोकसंस्कृति को बारीकी से जानने व समझने का मौका भी मिलता है |

मेरी यादों का पहाड़ :- किताब में क्या है ख़ास

यह किताब एक आत्मकथा अथवा एक संस्मरण है इसलिए इसमें लेखन की शैली आत्मकथात्मक शैली है | लेखक ने बड़ी बेवाकी व साफगोई से अपने बचपन की छोटी से छोटी घटनाओं के माध्यम से न केवल अपने समग्र व्यक्तित्व को उघाड़कर रख दिया है बल्कि अपने साथ-साथ स्मृतियों के सहारे पहाड़ के ग्रामीण जनजीवन को हू-ब-हू कैनवास पर उतार कर रख दिया है | इसमें रोचक , पर्वतीय समाज में प्रचलित दन्तकथाऐं एवं अन्तर्कथाऐं आपको मनोरंजन तो देंगी ही साथ ही कभी रूलायेगी, कभी गुदगदायेगीं, कभी जंगलों के बीच हिंसक जानवरों के बीच रोमांचित करेगी तो कभी समाज में प्रचलित रूढ़ियों, अन्धविश्वासों तथा दुश्वारियों के लिए सोचने को उद्वेलित भी करेंगीं|

इस किताब में पहाड़ के तीज-त्योहार, पर्वों, जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त लोक में प्रचलित संस्कारों के बारे में बताया गया है | साथ ही यहॉ के विभिन्न पेड़-पौधों तथा लोकजीवन में उनके विभिन्न उपयोगों पर भी विशद जानकारी देगी | लेखक ने पशु-पक्षियों द्वारा निकाले जाने वाली ध्वनियों को शब्द चित्रों के माध्यम से इस प्रकार उकेरा है कि सहज ही घटना का सजीव चित्रण और ध्वनियों के चित्रण से लगता है कि घटना मेरे सामने घटित हो रही है.| ऐसा लगता है जैसे लेखक उनसे बातें किया करते थे |

… आगे-आगे गाय भैंसो का बागुड़(झुण्ड). बागुड़ में सबसे आगे मुिखया भैंस के गले में लटका बड़ा और भारी घांण (घंटा) बीच बीच में बजता –घन-मन्–घन-मन्! उसके पीछे दूसरी भैंसे और उनकी थोरी-कटिया. फिर ठुल ददा. उनके बाद गायें और बैल. फिर घोड़ा. उसके पीछे बाज्यू, मैं, ईजा और बड़ी भौजी. घोड़े के खंकर खनकते रहते …….खन्-खन्, खन-खन्…

अपने मवेशियों को चराने के दृश्य को लेखक कुछ इस प्रकार लिखते हैं |

वैसे लेखक केवल एक वाक्य में यह कहकर भी निबटा सकते थे कि हम अपने मवेशियों के साथ माल-ककोड़ को चले गये | लेकिन वह जीवन्तता नहीं आती. प्रत्येक की पंक्तिवार चलने की स्थिति तथा उनके चलने से होने वाली ध्वनि का शब्दों के माध्यम से हूबहू चित्रण से लगता है कोई चलचित्र हमारे सामने चल रहा है | शब्दों की ध्वनियां केवल मवेशियों के गले की घण्टियों तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि पशु, पक्षियों, वाद्ययंत्रों की घमक आदि जो भी लेखक ने सुना, उन ध्वनियों को शब्दों में बांधने का बेहतरीन प्रयास किया गया है. जिससे दृश्य एकदम जीवन्त हो उठता है.|

पहाड़ में मौजूद अंधविश्वास को , यहाँ की परम्पराओं को और मान्यताओं को लेखक ने वैसा ही लिखा है , जैसा है , आपनी तरफ से किसी वैज्ञानिक खंडन का प्रयोग नहीं किया है | शिशु के जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त लोकरीति के अनुसार संस्कारों के विधि-विधान, तीज त्योहारों की स्थानीय रवायतें,पहाड़ की रीढ़ महिलाओं का श्रमसाध्य जीवन,जंगली जानवरों तथा श्यों-बाघ के किस्से, उस समय की स्कूली शिक्षा, पहाड़ में उपजने वाली फसलों, फल-फूलों, पहाड़ों की उद्यमिता तथा स्वावलम्बी पहाड़ का शिल्पकौशल सब कुछ एक ही पुस्तक में समा दिया है. पहाड़ की जीवट महिलाओं के बीच परस्पर संवाद सुनिये! जो लेखक के कानों तक पहुंचा |

दि दिदी , कैसा आराम ? रात्तैब्यान (सुबह) से अधराति तक काम ही काम हुआ. एक घड़ी भी बैठने की फुरसत नहीं हुई
ह्वै बैनी(बहिन) किलै नें. मेरी भी तो यही बात हुई
रातैब्यान उठाकर जंगोर झाड़ना (झाड़ू लगाना) रोटी, साग-पात बनाना, फिर पानी भरने दौड़ना. दो रोटी खाकर घास काटने चल देना. अब लौटी हॅू तो सीधे खेत में चली जाऊॅगी,मंडुवा लगाने. ब्याल (सांझ) तक लौटूंगी. फिर वही पानी-रोटी, साग-पात. बच्चे अलग. सोने तक तो आधी रात बीत जाती है दिदी..
द बैनी सैनि (औरत) जात के भाग मंे तो दुख ही दुख हुआ…… चल, चलें अब. इजू, अबेर (देर) हो जायेगी.

महिलाओं का श्रमसाध्य जीवन

उनको को बचपन में ‘देबी’ कह कर बुलाया जाता था | और देबी के बालमन की जिज्ञासाऐं उनकी ईजा (माँ) ही शान्त करती नजर आती हैं | ईजा व देबी के बीच छोटी-छोटी बातों को लेकर परस्पर संवाद बड़े ही रोचक ढंग से लिखे गये हैं | लेखक को जब भी कुछ जानना होता है, तो वह अपनी ईजा से ही पूछता है और ईजा अपने ज्ञान के आधार पर उनका समाधान ही नहीं देती, बल्कि जीव जन्तुओं पर दया तथा करूणा का भाव जगाते हुए पराचित (प्रायश्चित) का डर दिखाती है और उस दौर में भी पर्यावरण संरक्षण की सीख अपने तरीके से देती हुई नजर आती हैं |ईजा व बाज्यू उनमें मनुष्य एवं मानवेतर जीवों के प्रति संवेदना का भाव जगाने में सदैव मुखर नजर आते हैं, जाहिर है कि उसका प्रतिबिम्ब लेखक की सहृदयता व संवेदनशील व्यक्तित्व पर आज भी झलकता है. एक घटना में उनके घर का गुजारा बैल गिरकर चोटिल हो जाता है और उस घायल बैल को उठाकर घर नहीं ला पाते, रोज उसी स्थल पर जाकर उसे कुछ दिन घास-पानी देते हैं और एक दिन जब वह दुनियां छोड़कर चला जाता है तो बाज्यू की संवेदनशीलता देखिये.

एक दिन बाज्यू ने उसके पास से लोटकर कहा, मुक्ति है गेछ गुजारा कि.
तुमार जान् लै ज्योनै छि कि मर गैछ. ददा ने पूछा.
बाज्यू ने कहा, ज्योनै छि. मैंने उसकी ऑखों में देखकर कहा – तूने हमारा बहुत साथ दिया गुजारा. उसकी पीठ पर तीन बार थपकी देकर बचन दिया, चल तेरा जो भी रिन था सब तर गया ! तर गया ! तर गया ! अब तू शान्ति से जा गुजारा … अभी मेरा हाथ उसकी पीठ पर ही था कि उसने लम्बी सांस भरकर ऑखें पलट दी. परान उड़ गए. सच्चा बल्द था बेचारा.

बचपन का वह गांव का जीवन और महानगर में रहकर किताब लिखने तक का यह 40-50 साल का लंबा अन्तराल और लेखक द्वारा पुस्तक में भ्वैन, लोकगीतों व जागरों के बोलों याद कर जस का तस कागज पर उतार देना और पशु-पक्षियों की अलग-अलग ध्वनियों का शब्दांकन सचमुच में लेखक की याददाश्त पाठक को हैरत में डाल देती है.|

काफल खाने जंगल जाते तो वहॉ चारों आर चिड़ियों की चहचहाहट ़सुनाई देती थी. कोई चिड़िया पास के ही किसी पेड़ की टहनी पर गा रही होती ’ह्वी टी-टी-टी-ह्वी’ तो कोई सीटी बजा रही होती – ’स्वीह – स्वीह!’ कहीं ’ कुर-कुर-कुर-कुर’ कहीं ’चीं चीं चीं ई ई ई वीं ची ई’ और कहीं ’ हो हो हो हो !’. जंगल के भीतर कहीं से आवाज आती ’ को को को को …..को को को को !’’ किसी ओर ’पी ई ई पी ही …….पी ई ई ….पि पी ही पी ई ई ’ सुनाई देती तो कहीं कोई चड़ी लगातार ’ पीईप- पीईप-पीईप-पीईप’ कह रही होती. कोई गाती ’ कुर-कुर कुई ई ई !’ किसी पेड़ पर बैठा कोई कठफोड़वा तने पर हथौड़ी की तरह बड़ी जोर से चोंच ठकठकाता ’ ठक-ठक-ठक-ठक-ठक’ बगल की शाख पर बैठी चड़ी कानों में अपने सुर का मधुर रस घोल देती -’ टी वी टी ई….टी टी वीऽ !’’

आत्मकथा का वह मार्मिक प्रसंग जब कक्षा- 6 में पढ़ने वाले मासूम देबी की सबसे प्यारी ईजा उसे छोड़कर अनन्त लोक की यात्रा को निकल पड़ती हैं, तो यह दृश्य हर किसी के ऑखों में ऑसू लाने को विवश कर देता है. यह और भी दुखद है कि अपनी ईजा का प्यारा लाडला देबी मरते समय उसके पास तक नहीं रहता और जब दूर ओखलकाण्डा से रातभर कई मील पैदल चलकर घर पहुंचता है तो मॉ की अर्थी घर के आंगन में देखता है. |

सर के पास उकड़ू बैठे बाज्यू उठे. मेरे सिर व गालों को मुसारते (सहलाते) हुए भरे गले से बोले- च्यला तेरि ईज मरि गेछ. तुझे छोड़कर चली गई. वे अपनी अंगुलियों से मेरे ऑसू भी पोछ रहे थे. फिर अचानक उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर कहा – आ, यहॉ आ. अपनी ईजा से आखिरी बार मिल ले. मुझसे बचन ले गई, देबी जब तक पढ़ना चाहेगा, पढ़ाते रहना.
उन्होंने किनारे से कफन हटाकर मेरा हाथ भीतर डाला और बोले- अपनी ईजा को अच्छी तरह छू ले. मैंने ईजा के पेट पर हथेली रखी.

सच कहें तो यह एक लेखक की अपनी आत्मकथा न रहकर पूरे पहाड़ी समाज की आत्मकथा बन गई है. जिसमें ईशारों-ईशारों में लेखक ने समाज की अच्छाइयों व विसंगतियों को बड़ी सहजता व चतुराई के साथ उजागर किया है. गैर कुमाउनियों के लिए यह न केवल यहॉ के सामाजिक ताने-बाने को समझने का एक माध्यम है, बल्कि कुछ-कुछ कुमाऊनी शब्दों की सीखने का मौका भी है, जिसका हिन्दी अर्थ पुस्तक के अन्त में दिया गया है. पुत्री मानसी के सहयोग से रेखांकन पुस्तक को और भी रूचिकर बना देता है. विशेष रूप उन गैर पहाड़ी पाठकों के लिए जो वर्णित चीजों की केवल कल्पना ही नहीं कर पाते बल्कि रेखाचित्रों के माध्यम से उनके आकार-प्रकार का ज्ञान भी कराते हैं. इतने प्रतिष्ठित लेखक की पुस्तक पर कोई समीक्षा लिखने का तो मैं दुस्साहस नहीं कर सकता, लेकिन पुस्तक को पढ़कर जो उद्गार मन में आये, उन्हें साझा किये बिना रह भी नहीं सकता |

मात्र 160 रूपये मूल्य की यह पुस्तक अमेजन की ऑनलाइन शापिंग एप्प पर भी उपलब्ध है.

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