पौढ़ी शहर का एक दिन …

पौड़ी जिसकी ख़ूबसूरती के बारे आज हर कोई जानता है, वह भी कभी एक गाँव था, जो पौड़ी खाल के नाम से जाना जाता था | यहाँ की भौगोलिक सुन्दरता , मौसम और ठंडी जलवायु की वजह से अंग्रेजो ने इस जगह को बड़ा आकर्षित किया | और  यहाँ  विभिन्न कार्यालयों की स्थापना करके उन्होंने इस शहर को अपने शासन का केंद्र बना दिया |

 पौड़ीखाल , अब पौढ़ी गढ़वाल से जाना है | जहाँ सुबह सूरज की किरणे , पहले सामने पर्वत श्रंखला के उस समूह पर पड़ती है जिसका नेतृत्व चौकम्भा पर्वत करता है | पौढ़ी के पश्चिम में किंकालेश्वर  मंदिर में इस प्रकाश का स्वागत किया जाता है | और कुछ ही समय में  सुबह की लालिमा पूरे शहर में पहुचं जाती है | भोर होने पर  घर की छतों, बालकनियों ,बिजली के तारों और आस पास के पेड़ों की टहनियों में  चहचहाती चिड़ियों की नादानियाँ शुरू हो जाती है | घर अपने खिड़की-दरवाजे खोलकर , सुबह के प्रकाश का स्वागत करते हैं |  और कुछ ही क्षणों में सारा शहर जागने लगता है | दूकानदार ,दुकानों की सफाई करके ,धूप-अगरवत्ती की खुशबु से लक्ष्मी देवी को प्रसन्न करते हैं , ताकि पूरे दिन लक्ष्मी उन्हें प्रसन्न करती रहे | सर्पीली सडको पर सोई  आवारा गायो और सांडो को भगाया जाता है , सफाई कर्मचारी सडको और रास्तो को साफ करने में जुट जाते हैं |

Pauri Garhwal
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पौढ़ी बस अड्डे में कुछ बसे तो पहले ही जा चुकी होती हैं , और कुछ जाने के लिए बस अड्डे पर पहुँच जाती है | बस अड्डे में मौजूद चाय वाले अपनी चाय तैयार रखे हुए होते हैं , जिसे पीने के बाद बस कंडक्टर लोग….” एइ! श्रीनगर-श्रीनगर, ,कोटद्वार-कोटद्वार” जोर से बोलना शुरू देते हैं |

वहीं कुछ सब्जी वाले ताज़ी सब्जी खरीदकर ,उन्हें सजाने में जुट जाते हैं तो कुछ कल-परसों की बची हुई सब्जी को पानी डालकर ताज़ी करने में जुट जाते हैं |

  इस बीच श्रीनगर रोड से आँचल दूध डेरी वाली गाड़ी ,”ठंडो रे , ठंडो मेरो पहाड़ो कु आँचल दूध ठंडो ठंडो “ गाता हुआ, अपनी आने की खबर पूरे शहर को देता है | श्रीनगर रोड, कोटद्वार रोड , माल रोड, कंडोलिया रोड आदि सभी मुख्य सडको पर कुछ देर तक स्कूल की पीली बसे दिखाई देने लगती हैं | शहर के लोगों की तरह ये सड़कें भी व्यस्त होने लगती  हैं |  बीच सडक पर जहाँ गाड़ियों की छोटी-लम्बी कतारें चलती हैं ,वहीं सडक के किनारों पर कुछ स्कूली बच्चे ,छोटे-मोटे दलों को बनाकर अपनी स्कूलों के लिए जाते हैं |

ज्यूँ-ज्यूँ  दिन बड़ता है , पहाड़ो की कच्ची और पक्की रोडो पर राज करनी वाली टाटा सूमो और मैक्स की गाड़ियाँ , गाँव की सवारी लेकर पौड़ी बाजार की बारीक सडको पर दिखने लगती हैं |  जैसें-जैसे भीड़ बढती है , दुकानों में खरीददारी बढने लगती है | मेडिकल की दुकानों में कुछ सरकारी अस्पतालों के पर्चे लेकर पहुचं जाते हैं , जिनमें उन दवाइयों के नाम लिखे रहते हैं जो सरकारी अस्पतालों के अलावा हर जगह मिलती है |

फ्रंटियर होटल में चाय और समोसे की डिमांड अचानक बढने लगती है | इतने में कोटद्वार-देहरादून के लिए एक-एक बस रवाना हो जाती है | ये वे बसे हैं , जिन्होंने पौड़ी के गाँवों को खाली करने में अपना पूरा योगदान दिया है | पौड़ी की सिटी बस भी इस बीच पौड़ी के एक दो चक्कर पूरा करके , शहर का पूरा जायजा ले लेती है , कि आज किस सडक पर , किस मोड़ पर , कूड़े के ढेर के पर कौन सा सांड पहरा दे रहा है | पौढ़ी घुमने आये लोगों की नजर इन आवारा गाय , सांडो, सूअरों और जगह-जगह पड़े कूड़े पर पड़ ही जाती है, इतने में एक आवाज कानो में पडती है ,” पौढ़ी दूर से ही सही लगता है , इसकी रौनक , गढ़वाली गानों में ही सही लगती है “| 

जगह-जगह पर पढ़ा कूड़ा शहर को बुरी नजरो से बचाता है , कैसे ? यह कूड़ा ठीक उस काजल की तरह है , जो छोटे बच्चो की सुंदर चेहरे पर लगाने से उन्हें लोगों की अच्छी-बुरी नजरो से बचाता है |

दिन ज्यूँ चड़ता जाता है , आस-पास के गाँव जानी वाली सवारियां , बस अड्डे के नीचे टैक्सी स्टैंड में धीरे-धीरे पहुँचने लगती हैं | फिर क्या ! वही , अपने गाँव-पट्टी के लिए जानी वाली गाड़ी में बैठकर ,गाड़ी में पूरी सवारी होने का इन्तेजार करती है | इन गाड़ी के ड्राईवरों को पता होता है, कि बाकी की सवारी अभी नहीं आएगी , क्योंकि कुछ बैंको की लम्बी लाईनो में ,कुछ कैंटीन की लाइनों में अपनी बारी का इन्तेजार कर रही हैं | इसके अलावा कुछ , कोलेज के नाम पर होटलों में चौमीन-मोमो आने का इन्तेजार कर रही है |

इस बीच पौड़ी से श्रीनगर और श्रीनगर से पौड़ी, आने और जाने वाली बसे दो-दो बार दिख जाती है |  लेकिन गाँव को जा रही टाटा-सूमो में सवारी पूरा होने का इन्तेजार खत्म नहीं होता |

कुछ देर बाद जैसे ही सवारी पूरी हो जाती है ,तो ड्राईवर बीड़ी का एक लम्बा कश खींचता हुआ उसे वहीं फेंक देता है, अपनी सीट पर बैठते ही उसे याद आता है , सुबह गाँव से उसके साथ उसका एक साथी पौढ़ी, दारू लेने आया था |उसके दोस्त ने उसे भी रुकने को कहा था | वह अब अपनी जींस के बाएं जेब से दिलबाग का पैकेट निकालता है , उसे फाड़ ही रहा होता है , तभी बीच में बैठी सवारी उसे चलने के लिए कहती है | ड्राइवर सलीके से दिलबाग़ में जर्दा मिलाकर ,उसे हिलाते हुए , बिना पीछे मुड़े उससे कहता है कि एक सवारी और आनी वाली  है एक मिनट रुकना पड़ेगा | वह सवारी पहले तो  मन ही मन  में अपनी फ्रस्टेशन उतारता है फिर कुछ देर बाद लम्बी सांस छोड़ते हुए , ड्राईवर से पूछता है कि अभी और  कितना टाइम लगेगा | ड्राईवर , मुंह में रखे दिलबाग की वजह से लाल थूक बाहर फेंकता है और पास में रखे फोन को निकालते हुए , दुबारा बिना पीछे मुड़े कहता है कि बस आने वाला है | उसे फोन करता है, उसका दोस्त फोन नहीं उठाता है , कैसे उठाता उसके हाथ में बोतलें होंगी , ऐसा ड्राईवर सोचता है | वह जितनी ज्यादा देर लगाता है , ड्राईवर सोचता है कि वह उतनी ज्यादा बोतले ला रहा है , या फिर पेटी ही  ला रहा है | इतने में बीच में बैठे सवारी का सब्र अब टूट जाता है ,उसे इसीलिए तो पहाड़ में रहना पसंद नहीं है , वह सब कुछ कर सकता है , बस एक इन्तेजार ही तो है जो उससे नहीं हो पाता |  वह ड्राईवर के सामने आफ़र रखता है , कि उसकी सीट का किराया वो दे देगा तू बस अब चल |

ड्राईवर यह सुनकर थोडा सोचता है , लोजिक लगाने की कोशिश करता है , अगर अपने दोस्त जो ठेके पे गया है ,  के लिए रुकना है तो वह दारू का लालच देगा और ऊपर से किराया भी नहीं देगा | वह  इन्तेजार कर रहे सवारी की पीड़ा को समझता है ,इसलिए गाड़ी स्टार्ट कर देता है , लेकिन तभी  उसकी आँखों के  सामने आज शाम का एक दृश्य आ जाता है , जिसमे वह अपने दोस्त के साथ लम्बे-लम्बे पैक खींच रहा होता है | और उसे मजबूरन गाड़ी बंद करनी पडती है , तभी पीछे से आवाज आती है , भाईसाब अब चल भी लो |

इस बार ड्राईवर पीछे देखता है और गाड़ी को स्टार्ट करते हुए , मन को मारकर , आँखों के सामने से शाम के दृश्य को हटाकर , गाड़ी को पहले गियर में डालते हुए , गाड़ी को टैक्सी स्टैंड से बाहर निकालता है |

ड्राईवर  का शरीर तो गाड़ी में ही मौजूद है ,लेकिन उसका मन  अभी भी शाम के उन लम्बे-लम्बे पैक को देखना चाहता है , जिन्हें वह अपने दोस्त के साथ खींचना चाहता है | एक अफ़सोस के साथ गाड़ी को बाजार से होते हुए माल रोड की ओर आगे बड़ता है | वहां अपने दोस्त को उसके दोस्तों के साथ देखता है , और उसके मन में एक आवाज आती है , अच्छा इसलिए ये मेरा फोन नहीं उठा रहा था |

इतने में गाड़ी में चल रहा ,” तेरा गम मा जयी अंजली, मैं दरोल्या ह्व्ग्यों “ गाने को वो बदल देता है और नेगी जी , “दारू बिना यख मुक्ति नि , दारू बिना यख जुख्ती नि “ गाने को चलने देता है | गाड़ी को तीसरे-चौथे गियर में डाल कर तेजी से भगाता है |

दिन चढ़ने के बाद जैसे-जैसे घटने लगता है , शहर में गाड़ियों के हॉर्न की आवाज भी कम होने लगती है | शहर की आधी भीड़ गाँव पहुँच जाती है , और शहर में रह रही एक भीड़ का हिस्सा टेका रोड पर , ल्वाली घाटी में सूरज को डूबता हुआ देखने पहुँच जाता है ……..

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