उदास शाम की मायूसी : एक झूठी प्रेम कहानी

एक उम्र या एक समय हर किसी के जीवन में ऐसा जरूर आता है ,  जब शामें उदास रहने लगती हैं , बिना सोचे भूख नहीं लगती है , हंसी तो आती है लेकिन हँसना-मुस्कुराना क्या होता है , यह याद नहीं रहता है | सुबह होती है और सीधे रात होती है , इस बीच क्या होता है ,क्यों होता है , कुछ ख़ास मतलब नहीं रहता है | इन सब के पीछे कारण , अलग-अलग और कई जायज कारण हो सकते हैं |

ऐसे ही कुछ कारणों की वजह से इस झूठी प्रेम कहानी का पात्र सुखदेव, ऐसी ही एक उम्र गुजारने एक नए और अनजान शहर में आ गया | शहर उसके लिए अनजान था और वह शहर उसके लिए एक अजनबी …. | बड़ा शहर होता तो शहर को इस अजनबी की क्या ही खबर होती , लेकिन ये ठहरा एक छोटा सा और नया शहर जो अभी हाल ही में गाँव से शहर बना था , इसलिए यह छोटा सा शहर , सुखदेव की अच्छे से खबर लेने लगा |

सुखदेव कोलेज की पढ़ाई पूरी करके , दो सालों से घर में मुफ्त की रोटियाँ तोड़ रहा था | उसे , उसके  मुंहबोले मामा जी के सोर्स से एक एनजीओ में जबरदस्ती की नौकरी दिला दी | उसे भले घर में मुफ्त रोटियां तोडना अच्छा नहीं लगता था , लेकिन नौकरी भी नहीं करना चाहता था ,उसे तो कुछ न करने की आदत जो गयी थी |

 लेकिन क्या करें ! एक जिम्मेदारी है जिसे सुखदेव मजबूरी में उठाकर , इस  नए शहर में पहुँच गया था | नौकरी क्या है , कैसी है , उसका का क्या काम होगा? ऐसे बहुत सारे सवालों के उसके पास कुछ सीमित और अधूरे ही जवाब थे | पीठ पर  एक बैग  लादे , एक हाथ में अटैची और एक हाथ से काँधे में बिस्तरबंद पकड़े हुए , सुखदेव इस शहर में पहुच गया |  बड़ी मुश्किल से बताये पते पर ये सारा सामान लेकर पहुँच गया |  बाजार से दस-पांच मीटर ऊपर एक  अच्छा सा घर था , और उस घर के एक खाली पड़े कमरे के खालीपन को दूर करने के लिए , सुखदेव ने अपना सारा सामान वहां रख दिया |

पहली रात उसे, उन पुरानी रातों की यादों ने सोने नहीं दिया , जब वो और  उसके दोस्त कोलेज के दिनों में किराए के कमरे पर रहा करते थे | जहाँ  वे  हँसते थे ,, खेलते थे , खाते थे , पीते थे …कह लीजिये कि पढाई के सिवा सब कुछ किया करते थे | इन्ही यादों के सपनो को आँखों में लिए जैसे-तैसे वह सो गया था |

सुबह तो कब की हो गयी थी , लेकिन सुखदेव की सुबह तब हुई , जब दरवाजे  से आती एक कर्कश आवाज ने सुखदेव की नींद खोल दी |   ये आवाज उसके मकान-मालिक की थी , ये बात तो उसे पता थी लेकिन यही आवाज उसे अपने ऑफिस में भी सुनने को मिलेगी ये उसे पता नहीं था | यह बात  उसे तब पता चली जब इस आवाज और मकान के मालिक के साथ वह ऑफिस गया |

कमरे से आधे घंटे का पैदल रास्ता था, जिसे तय करते हुए , मकान मालिक , सुखदेव के बारे में वह सारी बातें जान गये , जो उन्हें जाननी थी | इससे पहले उसके मुंहबोले मामा , जो उनके मित्र थे  उन्हें बस सुखदेव का नाम पता और ये मेरा भांजा है , इतना ही बताया था | शहर के दुसरे कोने में तीन कमरों वाला एक पुराना घर था और यही  उसका नया और पहला ऑफिस था |

यह एनजीओ सरकार के साथ मिलकर काम करती थी| जिसका काम था , ग्रामीण इलाको में रहने वाले लोगो के रहन-सहन के आंकड़े इकठा करना ताकि उस हिसाब से सरकार उनके लिए भविष्य के लिए योजनाये बना सके | साथ ही , सरकार द्वारा जारी योजनाओं के प्रति  लोगों को जागरूक करना भी उनके एनजीओ का मुख्य उद्येशों में शामिल था |

पहले दिन यह जानकारी प्राप्त करने के बाद ,  उसका काम था डाटा कलेक्शन का ,कंप्यूटर पर एक्सेल शीट बनाने का | और उन शीट्स के प्रिंटआउट निकालकर उनकी एक फाइल तैयार करनी थी |

शुरुआत के कुछ दिन , अजीबी के थे | ऑफिस में सब उससे बड़े थे , बल्कि कुछ ज्यादा ही बड़े , जिसकी वजह से बात होती थी लेकिन  बातें नहीं हो पाती थी |

हर शाम को थक-हारकर , जब सुखदेव अपने कमरे पर पहुचता तो उसकी आँखों को यादें भिगोने लगती | बड़ी मुश्किल से खुद को संभालता और अकेले कमरे के इस खालीपन से कुछ दूर टहलने निकल जाता |

शहर के एक छोर पर एक घर था और सडक से सटे एक छोटे से कमरे में एक छोटी सी दूकान दी , जहाँ पर छोटा-मोटा सामन जैसे- टॉफ़ी , बिस्किट , आटा-तेल-नमक आदि रोजमर्रा का सामान मिलता था | सुखदेव रोज वहां पर जाता एक सिगरेट खरीद लेता | उस सिगरेट के धुंए से उदास शामों की मायूसी को दूर  करने की कोशिश करता |

 ऐसे ही एक शाम , अपनी मायूसी को दूर करने के लिए वह उसी दूकान में गया तो उसने देखा कि एक लडकी , वहां बैठे कुछ पढ़ रही थी | दूकान में लड़की को यूँ अचानक देखकर , सुखदेव थोडा घबरा उत , उसे लगा कि लडकी से कैसे सिगरेट खरीदें , लेकिन सुख्देव के कुछ बोलने से पहले से ही उसने सिगरेट की एक डब्बी उठायी और उसमे से एक सिगरेट निकालकर सुखदेव को दे दी और कहा 12 रुपये ….. सुखदेव ने बिना कुछ कहे , हाथ में रखे 12रूपये उसे थमा दिए | वहां से  चला गया |

सुखदेव चुपचाप वो सिगरेट पकडकर , रोज की तरह अपनी उदास शामों की मायूसी को धुंए में उड़ाने चला गया |  जैसे ही सुखदेव ने सिगरेट का पहला कश गले में उतारा , सुखदेव के सामने कुछ देर पहले का दृश्य आ गया | जब उस  सांवली सी , चश्में पहने लड़की ने उसे बिना कुछ पूछे सिगरेट थमाई थी |  सिगरेट के हर एक कश, सवाल और घर होता गये | कि वह लड़की कौन थी, उसने मेरे कहे बिना ही मुझे कैसे सिगरेट पकड़ा दी ? क्या उसने मुझे पहले भी यहाँ से सिगरेट खरीदते हुए देखा है ? नहीं तो उसे कैसे पता ? और अगर उसे पता था तो कैसे , मैंने उसे क्यों कभी नहीं  देखा ? सुखदेव के इन सवालों में न जाने कब उसकी सिगरेट खत्म हो गयी उसे भी कुछ पता नहीं चला |

ये पहली बार था , जब सुखदेव ने सिगरेट पीते समय , ऑफिस के लोगों , घर-गाँव के पुराने दोस्तों और उनकी यादों को  याद करने के सिवाय कुछ और सोचा हो |   

अगले दिन की शाम आते-आते  सुखदेव यह सब भूल गया था लेकिन अगली शाम को जब यूँ ही कुछ फिर से हुआ तो ,सिगरेट खत्म होने के बाद भी सुखदेव उसके बारे में सोचता रहा |

उसके अंदर उसे जानने के लिए जिज्ञासा तो जगी , लेकिन इतनी नहीं कि वह छानबीन में  लग जाय , कि अगल बगल लोगों से उसके बारे में पूछे , या फिर उसीसे ,उसके बारे में पूछे |

वह दो दिन उसे देख पाया था , तीसरे दिन उसे उस ओर जाने का मौका ही नहीं मिला | क्योकि ऑफिस का काम घर तक जो पहुँचने लग गया था | सुखदेव छोटा था ,और साथ ही शरीफ भी , और सभी शरीफों की तरह एक अच्छी आदत जो बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती थी , वह उसके पास थी | कि “ना” न बोलने की आदत | हर कोई उसके पास अपना काम टाल जाया करता था , वे जानते थे कि ये मना करेगा नहीं और कर भी नहीं सकता| इस बात का सब अच्छे से इस्तेमाल करने लगे |

दूसरी ओर सुखदेव को इन  सब बातो से कोई फर्क नहीं पड़ता था , बल्कि उसे तो अच्छा लगता था ,हर समय अपने आप को व्यस्त रखें में | कुछ न करना , उसे हमेशा दुविधा में दाल देता था , बीते पल और उन पलों की यादें उसकी नजरों को जो बार बार ओझल करती थी |

सुखदेव , आज की शाम मायूस नहीं , व्यस्त था इसलिए न आज उसे सिगरेट  की जरुरत थी और न ही घूमने की |

इधर दूकान पर सज संवर कर बैठी वह लड़की प्रीती उसके आने का का इन्तेजार कर रही थी | जैसे ही शाम का सूरज, दूर पहाड़ो के पीछे छिपने की कोशिश करने लगा , वैसे ही प्रीती बैचेन होने लगती कि वह अब तक आया क्यों नहीं | मैदान से क्रिकेट खेलने वाले बच्चो को घर लौटते हुए देख , प्रीति सवालों में खोने लगी, कहाँ गया होगा वो अभी तक तो आ जाया करता था | जब आस-पास की दुकाने बंद होने लगी, सब्जियों ठेलियों में भीड़ होने लगी तो , प्रीति को उसकी चिंता सताने लगी कि उसकी तबीयत तो ठीक होगी न ? वो आज आया क्यों नहीं ?

सारी रात ,बिस्तर पर करवटें बदलती रही , न वो सो सकी , और न ही इन सवालों के जवाब ढूंढ पा सकी |

अगली शाम को प्रीति की आँखे सुखदेव का चेहरा देखने के लिए काजल लगाये तैयार हो कर उसका इन्तेजार कर रही थी | लेकिन आज भी सुखदेव ऑफिस के लोगों को ‘ना’ न बोल सका , जिसकी वजह से प्रीति की आँखों को वो काजल आंसुओ से बहाना पड़ा |

ये अनचाहा सिलसिला यूँ ही कुछ दिनों तक बीएस चलता रहा , प्रीती हर शाम को इस इन्तेजार में दूकान में बैठती कि सुखदेव आज जरुर आएगा, लेकिन इस इन्तेजार की वजह से अब उसकी शामें मायूस होने लगी | थक हार कर उसने दूकान में न बैठने का फैसला अपने पिता जी को बताया , तो उसके पापा सोचने लगे कि कल तक तो अपने-आप मुझसे लड़ झगड़कर खुद दुकान पर बैठ जाया करती थी आज क्या हुआ होगा ? जब पूछने के लिए उसे पुकारा तो प्रीति उसी सडक पर अकेले  आगे चली गई , जहाँ उसने अक्सर सुखदेव को जाते हुए देखा था |

गुमसुम,सहमी हुई वह उस कच्ची सडक पर एक किनारे चलती रही | कभी खुद को कोसती ,कभी खुद की किस्मत को तो कभी सुखदेव को भर-भर के गाली देकर , यंहा से दूर बड़े शहर बुआ के पास जाने का फैसला बनाती |

खुद से बतियाते-बतियाते प्रीती बहुत आगे निकल चुकी थी , एक गाड़ी जब उससे होकर गुजरी तो उसे वापसी की याद आई | वापसी के दौरान के उसकी बातों से ज्यादा उके पैर चलने लगे | घर जाने के लिए  काफी देर हो चुकी थी , और वह बहुत आगे भी आ चुकी थी |

उसके तेज कदम , सडक पर पड़ ही रहे थे कि तभी सड़क के एक मोड़ पर एक बड़े पत्थर पर , एक लड़का बैठा हुआ था | उसकी नजरे सडक के नीचे की ओर थी , जब प्रीती ने उसे देखा तो उसने पत्थर पर बैठे ,उस पत्थर दिल   इंसान को पहचान लिया , जिसने इतने दिनों से उसके दिल को तोडा था |

सुखदेव, ने उसे अपनी ओर आते हुए नहीं देखा  और ये बात उसे भी पता थी कि उसके कमरे पर पहुँचते ही अँधेरा हो जायेगा | इसलिए वो भी के लिए मुड़ा |

प्रीती ठीक उसके पीछे पहुंची ही थी कि सुखदेव बिना इस बात को महसूस किये कि उससे कोई मिलना चाहता है , बात करना चाहता है , अपनी मायूसियों को लेकर आगे चल दिया | प्रीती ने उसे पुकारना चाहा कि उसकी नजर पत्थर के नीचे टूटी सिगरेट दिखाई दी | वह समझ गई कि ये जरुर इसी पत्थर दिल इंसान के काम होंगे |

उसने वह टूटी हुई सिगरेट हाथ में ली, पीछे दौड़ कर सुखदेव के पास गयी , उसकी  दायें  कंधे पर हाथ फैर कर उसकी बायीं तरफ खड़ी हो गयी | सुखदेव , पीछे देखने के लिए अपने दायें ओर मुड़ा , वहां किसी को भी न देखा तो वह आगे मुड़ा ही था कि प्रीती को देखकर वह पहले डरा , शक्ल जानी-पहचानी सी लगने के बाद वह चौंक गया |

कुछ कहने से पहले ही , प्रीती ने वह टूटी हुई सिगरेट उसे दिखाई | और उसे डांटते हुए कहा ,” अच्छा तो तुम हमारी दूकान की सिगरेट को यहाँ तोड़ा करते हो ?”

ये अचानक , सुखदेव के सामने जो भी हो रहा था उसके समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था | उसका भी चेहरा भी असमंजसता में पढ़ गया कि  आखिर वह किस भाव को प्रकट करे | डर का ? आश्चर्य का ? ख़ुशी का ? प्यार का ? या कुछ और ?

इधर प्रीती हँसी तो सुखदेव के चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कराहट स्वत: ही आ गई | प्रीती की हँसी  और सुखदेव की मुस्कान से, उनकी प्रेम कहानी इस तरह शुरुआत हुई |

अब सुखदेव की शामें उदास नहीं हुआ करती हैं , उसका दिन उसे बोर नहीं करता है , सुबह उसे आलस करने नहीं देती है , उसका चेहरा उतरा हुआ नहीं रहता है | वहीं प्रीती ने अपने पापा से जिद करना छोड़ दिया है , घर के काम में माँ का खूब हाथ बटाया करती है , अपने छोटे भाई को कार्टून भी देखने देती है तो उसे पढ़ाया भी करती है |

सुखदेव के जहाँ सपने पूरे हो रहे हैं , तो प्रीति अपने ख्व़ाब पूरा करना चाहती है | दोनों , एक-दुसरे के साथ , एक-दुसरे को पाना चाहते हैं , इसलिए दोनों की जिन्दगियां कुछ दिनों के लिए ही सही लेकिन बदल गयी |

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