गाँव की प्रीती-भोज में गाँव वालो की भागीदारी

 

शादी-ब्याह का सीजन इस बिखोती ( वैशाखी ) से शुरू हो गया है | एस ऐसे में शहर हो या गाँव , हर जगह एक रौनक छाने लगती है | और रौनक हो भी क्यों न , एक परिवार में किसी का शादी होना मतलब , उस परिवार के लिए सबसे बड़ी ख़ुशी का मनाना है | होली-दीवाली हर साल तो आती है , लेकिन एक परिवार को कभी एक साथ नहीं कर पाती | लेकिन शादी  में जब परिवार के सभी सदस्य घर आते हैं , तो तब जाकर वो मकान ,घर बनता है |  परिवार में चाहे , क्यों न कितने मनमुटाव हो लेकिन परिवार के इस शुभकार्य में हर कोई अपनी सहभागिता दर्ज करना पंसंद करता है |
   परिवार ही नहीं , आस-पड़ोस और यहाँ तक कि पूरा कि गाँव इस ख़ुशी के मौके पर अपनी सक्रिय उपस्थिति देना पसंद करता है |

शादी के कुछ दिन पहले ही , घर में मेहमानों का आना शुरू हो जाता है , इसलिए घर के कुछ सदस्य मेहमानों की आदिर-खातिर में व्यस्त हो जाते हैं | बड़ा कार्य है , यह सकुशल से सम्पन्न हो इसलिए गाँव के बड़े-बुजुर्ग भी घर में आते-जाते रहते हैं | शादी के कुछ कार्य  तो व्यक्तिगत तौर पर परिवार के सदस्यों तक ही सीमित रहती हैं |  लेकिन सबसे जरुरी  कि दो दिन पूरे गाँव का  भोज (खाना) अच्छे से हो, इसके लिए गांववालों का सहयोग तो चाहिये ही होता है |

शादी के एक दिन पहले शाम को , गाँव के पंचायती घर से , पंचायती बर्तन लाने का काम होता है ,गाँव के जवान लडको का | जो एक दो चक्कर में ही , बात-हँसी-मजाक में सारे बर्तन पहुंचा देते हैं |

अगले दिन , मेहँदी की शाम की तैयारियां सुबह से ही शुरू होने लगती हैं | सबसे पहले रसोई के लिए जगह ढूंढी जाती है, सीधी-सपाट , सुविधाजनक जगह  , जिसके तिरपाल भी लगा दिया जाता है | गाँव के बड़े लोग , सुबह को गेडू ( मटके नुमा पीतल का बड़ा सा बर्तन ) में दाल चढ़ा देते हैं | सब्जी वगैरा को धोकर ,  काटने का काम भी बाकी बड़े लोगों के आते ही शुरू हो जाता है |  साथ ही शुरू होती  है , देश-विदेश , क्षेत्रीय राजनीति के विषयों पर चर्चा |  लोकी छीलने वाले ताऊ जी , मोदी जी का गुणगान गायेंगे तो आलू छिल रहे दादा जी राहुल-इंदिरा की पैरवही करते हुए नजर आयेंगे |

Garhwali Cooking

जैसे ही चूल्हे में रखा गुड का पानी में पूरी तरह से घुलकर उबलने लगता है , बगल वाले चूल्हे में सूजी का हलवा बनने की तैयारी शुरू हो जाती हैं | एक चासनी ( बड़े आकार की कढ़ाई)  में में तेल और तेल गर्म होते ही , सूजी उसमें डाल दी जाती है | सूजी के थैले से तब तक सूजी , चासनी में पडती रहती है , जब तक पास में खड़े ,मुंह में बीडी का एक कश लिए , फौजी रिटार्यड दादा  बीडी का धुंआ छोड़ते हुए , बस-बस न कह देते |

उसके बाद तुरंत दो अनुभवी  व्यक्ति हाथ में ताछ( लम्बे हत्थे वाली चौड़ी करछी ) से सूजी को इस तरह से भुना जाता है , ताकि वह चासनी पर लगे ( जले न ) | सूजी को तब तक हिलाया-मिलाया जाता है , जब तक वहभुन कर , लाल न हो जाय | यह प्रक्रिया बड़ी सावधानी से और धीरे से होती है | समय-समय पर ताछ  को पकड़ने को अलग-अलग लोग जाते रहते हैं | क्योंकि इस समय तक , आधे से ज्यादा काम या तो पूरे हो चुके होते हैं , या फिर बंट चुके होते हैं , इसलिए बड़े लोग जो खाली रहते हैं , वे थोड़ी देर के लिए ही सही लेकिन हलवा बनाने में अपना सहयोग देते हैं | ताकि उन्हें भी लगे उन्होंने इस शुभकार्य में अपना सहयोग दिया है , वह भी सबसे अच्छे-मीठे पकवान बनाने में |

इस काम से जुडी एक खास बात यह भी जुडी है कि यूँ तो यह काम बड़े लोग , अनुभवी लोग ही करते हैं , लेकिन यदि कोई जवान भी इस काम को करता है , तो कहा जाता है कि उसकी नौकरी जल्दी लग जाती है |

इस मुख्य रसोई से थोड़ी सी दूर पर , एक छोटे से चूल्हे पर एक पतीली पर चाय बनाने कि जिम्मेदारी रहती है , पकी  दाडी वाले नौजवानों की , जो चारो तरफ से इस चूल्हे जो घेरे रहकर , हँसी-मजाक की बाते करते हैं | यहाँ पर वे लड़के भी रहते हैं जो जिनकी गल्मूछे , धीरे-धीरे गाल पर अपना कब्जा जमा रहे होते हैं , या कहे कि जिनकी जवानी बस आजकल ही फूट रही होती है | पकी दाडी वालो में से एक दो लड़के अपने पुराने किस्से सुनाते हैं , कुछ स्कूल के किस्से ,तो कुछ गाँव के शादी-ब्याह के किस्से और साथ ही क्रिकेट टूर्नामेंट के किस्से भी | इन किस्सों को और लोग बड़े मजे से सुनते हैं | किस्से-कहानियों की वजह जो ठहाके लगते हैं , जो उसकी गूंज से  इन लड़को की ऊर्जा का अंदाजा लगाया जा सकता है |

इसी बीच चाय बनते ही, चाय को बेहद पसंद करने वाला लड़का ,चाय में मीठा चखकर , चाय को पास करता है | फिर क्या , वहीँ पर खड़े , नई जवानी लिए लडको को चाय को वांटने के लिए कहा जाता | घर पर जो एक उलटा गिलास , सुलटा करना पसंद नहीं करते, यहाँ हर काम ,छोटा या बड़ा सब करना पसंद करते हैं |

एक केतली चाय पहले , रसोई में खाना बना रहे , बड़े-बुजुर्गो को दी जाती , जो चाय की पहली चुस्की लेते ही कह देते कि इन्होने मीठा ज्यादा कर दिया | वहीँ दूसरी तरफ ,रोटी बानी रही गांव की महिलाओं को जब चाय दी जाती ,तो उनका कहना होता कि तुम लोगों ने मीठा कम दाल दिया |

गाँव के छोटे-छोटे बच्चो के लिए आज खेलने के लिए नई जगह मिल जाती है | वैसे ही उनके पैर एक जगह पर टिकते नहीं , और आज भी वे तभी घर के आंगन में कुर्सियों के साथ खेलते हुए दिखते, तभी खेत में दौड़ते हुए| आते-जाते , कुछ काम करते हुए जब कोई गुजरता, हर कोई उन्हें डांटता , लेकिन उन्हें न किसी के समझाने से न डांटने से फर्क पड़ता है |  हाँ! बस अगर कोई ज्यादा डांट दे , कुछ देर के लिए वे डर की वजह से सहम  जरुर जाते हैं लेकिन फिर वही अपनी मस्ती की धुन में सवार होकर खेलना शुरू कर देते हैं |  उनका शोर तब कहीं जरा  कम सुनाई देता है , जब  डीजे वाले चाचा जी , गढ़वाली नए-पुराने गाने चला देते हैं |

सबसे शुरू में मंगलेश डंगवाल का माया बांद वाला गाना बजता है , जिससे चाचा जी सुनिश्चित हो जाते हैं कि डीजे (स्पीकर) के सभी तार सही से जुड़े हैं | वे अम्प्लीफायर पर साउंड का बेस और ट्रेबल सही करते हैं और फिर डीजे ऑपरेटर का कार्यभार अपने असिस्टेंट, एक जवान लड़के को बिठा देता हैं, जिसकी जवानी गढ़वाली गायक गजेन्द्र सिंह राणा के गानों की तरह फूट रही होती है | जैसे ही , डीजे (स्पीकर) के पीछे लगी लाल रंग की प्लास्टिक कुर्सी में बैठता है ,मंगलेश डंगवाल माया बांद से  फुर्की बांद , छकना बांद गाने लगता है | फिर कुछ हिंदी नए गानों के साथ पंजाबी गाने जिनके बीच-बीच में लेटेस्ट गढ़वाली गानों के रीमिक्स बजने लगते हैं | यूँ समझ लीजिये कि वह इस वक्त , गाने तैयार कर रहा है जिनपे आज रात ठुमके लगने हैं |

इधर शाम ढलते ही , आस-पास के आंगन , खेतो में रोटी बनाने वाली महिलाओं की टोली ,अपनी जगह से उठें लगते हैं | अपना तवा , परात और चकला-बेलन पकड़कर कर घर वापस चलने की तैयारी करते हैं | घर जाते ही , या तो अपने बच्चों के साथ या फिर खुद ही , शादी से घर के लिए परोसा लेने के लिए आना पड़ता है |

रसोड़े , में अभी भी गेडू एक चूल्हे पर वैसे ही रहता है , जैसे वो सुबह रखा गया था | फर्क बस इतना होता है.कि जो बांज की लकड़ियों की आंच , उसमे रखी दाल को पकाने का काम रही थी , अब बस इन लकड़ियों के लाल कोयले हैं जो दाल को गर्म और स्वादिष्ट बनाने का काम कर रहे हैं |

पास में ही अन्य सभी पकवान अलग अलग बर्तनों में रखे होते हैं जिन्हें बांटने की जिम्मेदारी इस बार सिर्फ गाँव के बुजुर्ग लोगों की होती है | घर के सदस्यों की संख्या के हिसाब से टोकरी में पहले सूजी का हलवा, फिर रोटी और सब्जी रखी जाती है , उसके बाद स्टील के एक बर्तन में दाल मांगकर , परोसे बाले घर की ओर चलने लगते हैं | रात के इस शुरूआती अँधेरे में , गाँव के बीचों-बीच से गुजरने वाले रस्ते में एक अलग तरह का शोर नजर आता है | अपने भरे हुए बर्तनों को लेकर कुछ घर की ओर वापस जा रहे होते हैं , तो कुछ खाली बर्तनों और मन में हल्की शंका लिए कि उन्हें कहीं देर तो हुई,जल्दी में शादी वाले घर की ओर जा रहे होते हैं, , |

कुछ देर बाद , जहाँ शादी वाले घर के आंगन में मेहमानों की पंगत खाना खाने के लिए बैठ जाती है , वहीं घर परोसा लेकर जाने वाले भी खाना खाना शुरू कर देते हैं | यह दोनों दृष्य गाँव में एक ही वक्त पर हो रहे होते हैं,जो भोजन तो एक ही कर रहे होते हैं, लेकिन स्वाद दोनों जगह अलग-अलग अनुभव कर रहे होते हैं | घर में खा रहे परिवार के सदस्यों को कभी दाल में नमक थोड़ा सा कम लगता है तो कभी सब्जी में मिर्च ज्यादा ,लेकिन इधर शादी की चकाचौंध में खाना खा रहे लोगो को सब कुछ स्वादिष्ट ही हो रहा होता है | और यदि थोडा बहुत उन्नीस-बीस हो भी जाय , तो इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता |

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गाँव में जब भी ऐसे मौके आते हैं , ऐसे शुभ कार्यों का आयोजन होता हैं, चाहे वह गाँव के मंदिर में अखंड-रामायण का पाठ हो , किसी की शादी हो या फिर श्राद्ध अथवा बरसी का प्रीती भोज हो | इसी दौरान एक गाँव की एकता , अखंडता और आपस का प्रेम-सहयोग का पता चलता है | गाँव वालों का एक होने का समय होता है , जिसमे हर व्यक्ति का सहयोग रहता है | शुभकार्य का सफलता से सम्पन्न होना मतलब , गाँव वालों के कर्तव्यनिष्ट सहयोग का सफल होना है |

यह एक तरह से गाँव की संस्कृति है , जो वर्षो की विरासत के रूप में आज भी गाँवों में मौजूद है | बदलते वक्त में यह पहाड़ की कई संस्कृतियों की तरह यह भी धीरे धीरे विलुप्त हो रही है | अब रसोड़े में गेडू में दाल पकाने वाले लोग शहर से हलवाई कहे जाने वाले लोग आते हैं , अब खाना खाने के लिए आंगन-खेत में पंगत बना कर बैठना नहीं पड़ता , जिसमे एक छोर से दल,रोटी सब्जी आदि आपको परोसा जाता है , अब बुफे सिस्टम के तहत आपको लाइन में लगकर अपने लिए प्लेट में खाना परोसते नहीं , बल्कि इसे रखना कहते हैं |

तरह-तरह के पकवानों में भले स्वाद तो होता है, लेकिन इस तरह का भोजन करने पर अब गाँव में वो आपसी सहयोग की वजह से प्रेम और अपनत्व का भाव नजर नहीं आता है | अपने ही गाँव में , उन्हें शादी में मेहमान बनकर रहना पड़ता है |

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