दिनेश! हाँ शायद उसका नाम दिनेश ही था | वह पिछले दो महीने से इस कमरे में रह रहा था | उसे लगता था कि वह इस किराए के कमरे पर अकेले ही रहता है, लेकिन अब उसे मैं कैसे बताता कि वह मकान मालिक को सिर्फ अपना ही किराया नहीं देता , बल्कि मेरा भी देता है| तो इसलिए मुझे उसके जूते काटने पड़े |
मेरा नाम …..अजी छोडो भी मेरा नाम जानकर क्या ही करोगे आप ,बस मेरे बारे यह जान लो कि मैं एक चूहा हूँ और इस कमरे में पिछले 10 महीनों से रह रहा हूँ | इस बीच इस किराये के कमरे पर कई लोग आये होंगे | कुछ अपने अधूरे सपनो को लेकर यहाँ रहने आये , तो कुछ अपनी जिम्मेदारियों का बोझ हल्का करने आये होंगे | कुछ ऐयाशी और मजे के लिए भी आये तो कुछ को मैंने अकेले अपनी तन्हाइयों के साथ रात बिताते भी देखा है |
बाकियों का तो पता नहीं , लेकिन पिछले 3-4 महीनो से यहाँ रहने वाले दिनेश के बारे में मुझे काफी कुछ पता है |
दिनेश शहर के किसी मॉल में नौकरी करता था | न ही इस शहर का लगता था और न ही शहर के आस-पास के गाँवों का | कहीं दूर से ही आया था | नौकरी करने के बावजूद वह अपने साथ कुछ किताबे भी लाया था , लेकिन कभी किताब पढ़ते हुए दिखा नहीं | एक दो बार रात को खाना खाने के बाद किताबों के पन्ने पलटते हुए देखा जरुर था , लेकिन दो तीन पलटते ही मैंने उसे थकते हुए देखा |
जब वह पहली-पहली बार यहाँ आया था तो और लोगो से काफी अलग था | सुबह नींद खुलते ही , बिस्तर छोड़ देता था, एक और फोन को चार्ज पर लगाके उसपे कुछ गीत बजाता, इसी संगीत की धुन के साथ चाय-नाश्ता करके तैयार होता और नौकरी पर चले जाता |
उसका काम बस मुस्कुराना था , जो भी कहना है , करना है, मुस्कुरा कर करना होता था | शुरू में तो उसे भी चेहरे पर मुस्कराहट रखना अच्छा लगा | नए लोगों से बात करना , उनकी मदद करना उसे पहले से ही पसंद था | और इस पसंदीदा काम के जितने भी पैसे उसे सैलरी के तौर पर मिलते उसके लिए पर्याप्त था |
मुझे नहीं लगता कि उसके कंधो पर कोई ख़ास जिम्मेदारियों का बोझ था | वो थोड़ा बहुत जितना भी कमा रहा था , उसके लिए वह पर्याप्त था | उसकी छोटी-मोटी जरूरते ,इन चंद पैसो से पूरी हो रही थी | उसकी जरूरते , दो वक्त के खाने और एक वक्त के सोने के लिए इस कमरे के किराये की व्यवस्था करना |
इंसान अगर जीता है तो अपनी चाहतो और जरुरतो के लिए , उसकी रोज की जिन्दगी, जरुरतो के लिए होती है , और पूरी जिन्दगी, चाहतो के लिए | चाहतों और जरूरतों में जरूरतों को पूरा करना ज्यादा जरुरी होता है | जरुरते एक बार पूरी होने लगती है , तो इंसान चाहतों के बारे में सोचता है | दिनेश की जरूरते ,उसकी नौकरी से पूरी होने के बावजूद भी , उसने कभी अपनी चाहतों को पूरा करने के बारे में सोचा नहीं | वह जिन्दगी के बारे में क्या महसूस करता था पता नहीं , लेकिन वह अपने दिनों से फिलहाल खुश था | अपनी दिनचर्या की व्यस्तता में वह मस्त था |
कभी मन किया तो दाल-रोटी और उसके साथ चांवल बना लेता था जब मन नहीं किया तो वही रुखा-सूखा खाता और ड्यूटी चले जाता | उसके लिए भले यह रूखा सूखा ठीक था , लेकिन मेरे लिए नहीं , उसने मेरी भी डायट बिगाड़ दी थी | पहले-पहले तो मैंने भी एडजस्ट किया , लेकिन बाद-बाद में उसके अंदर का आलस इतना बढ़ गया कि अगर चांवल एक कोने पर दुसरे कोने पर आटा रखा हुआ होता तो वो कल का कच्चा केला जो आज पक चुका होता था , उसे खाकर अपना काम चला देता था | ऐसे में मुझे फिर कागज कुरेदने पड़ते थे , उसके बदबूदार जूतों पर मुहँ मारना पड़ता था |
पहले-पहले वह रोज खाना खाकर जब सोता तो सीधे सुबह उठता , लेकिन अब न रात को खुद खाना खाता और न ही मुझे खाने देता | अँधेरी रात में उसकी गहरी नींद में सुकून होता था, ऐसी सुकून भरी नींद से मुझे बड़ी जलन होती थी, लेकिन उसकी गहरी नींद के चलते मुझे किचन और कमरे के कोने टटोलने में कोई दिक्कत नहीं होती थी |
बाद-बाद में वह सोता तो था लेकिन नींद, उसे आती ही नहीं थी | बस बिस्तर में लेटे-लेटे करवटें बदलता रहता था | रात के 2-3 बजे जब मैं कमरे में चीजो को कुरेद रहा होता तो पता नहीं वह मुझसे क्यों इतनी खुन्नस खाने लगा , कि मुझे पकडकर-मारने की कोशिशे करने लगा | शुरू में तो मैं उसपर पूरी तरह हावी रहा , उसने आटे में कांच के बारीक टुकड़ो को मिलाकर कमरे के कोनों पर रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े रखे , जगह-जगह मिर्च का पाउडर डाला लेकिन मुझे तो इन सब की आदत थी | मैं बचता रहा , तब तक जब तक एक दिन दिनेश ने चूहेदानी में मीट का टुकड़ा न फसाया| वैसे मैं तो शुद्ध शाकाहारी था लेकिन उस दिन मैं खुद की जीभ पर कंट्रोल नहीं रख सका |
सुना था , जो अपनी जीभ पर आसानी से नियंत्रण कर लेता है , वह उतनी ही आसानी से अपने जीवन पर भी नियंत्रण पा लेता है | मैं अपनी जीभ पर नियंत्रण नहीं कर पाया , मेरा जीवन खतरे में फंस गया |मैं चूहेदानी में जैसे ही फंसा , मैं बहुत छटपटाया , आधे फुट के जाल में घूमता रहा | दिनेश यह देख के मुस्कुराया , उसको मेरा ऐसा घूमना , मौत के कुँए में खटारा कार का चक्कर लगाना जैसा लगा | जिसका वह मजे से लुफ्त उठाता रहा | इधर मैं थका तो रुक गया , वह मेरे करीब आया | मेरी आँखें इस समय भरी हुई थी | मैं चूं-चूं करके चिल्लाता रहा , अपनी जान की भीख मांगता रहा लेकिन मुझे कहाँ पता था उसको मेरी चूं-चूं समझ में नहीं आती |
वह मुझे अपने करीब लाया , और रात के 2 बजे मेरी आँखों में देखने लगा , मेरी भरी आँखों में न जाने ऐसा क्या था, जिसने उसकी चेहरे की हँसी को गायब कर दिया |
मुझे लगा अब साँसों को उलटा गिनने का समय आ गया है | लेकिन वह मुस्कुराया और मुझे टेबल पर रख दिया | मैं छटपटाया जरुर लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पड़ा , वह मेरी तरफ मुहँ करके लेट गया | और मुझसे बातें करने लगा |
कहने लगा कि थैंक यू , उस दिन तुम मेरे जूते नहीं काटते तो मैं नए जूते लेने नहीं जाता | नए जूते लेने नहीं जाता ,तो उससे मुलाक़ात नहीं होती | उससे मुलाकात नहीं होती तो उससे बात भी नहीं होती | उससे बात नहीं होती तो दुबारा मुलाकात भी नहीं होती | दुबारा मुलाकात नहीं होती तो बातचीत नहीं होती | ये मुलाकातों और बातचीत का सिलसिला आगे न बड़ता | मैं दुबारा खुश रहना न सीख पाता | मुझे दुबारा से सपने देखने का चस्का न लगता | मैं इन सपनो को न संजोता |
यह कहके वो थोड़ा चुप रहा , दीवार की दरारों में न जाने क्या गौर से देखना लगा | अचानक आँखों को बड़ी करके मेरी तरफ देखने लगा | अब तू सॉरी बोल मुझे ….. क्योंकि तू अगर मेरे जूते न काटता तो मेरे सपने , हकीकतों से नहीं टकराते | हकीकतों से टकराकर यूँ चकनाचूर नहीं होते | इन टूटे हुए सपनो की वजह से मैं बिखरता नहीं…. यह कहते-कहते मेरी भरी आँखों का पानी , उसके आँखों से बहने लगा |
ये रात को बातों का सिलसिला आगे भी चलता रहा | शुरू-शुरू में वह मुझे कोसता रहता था , उसकी जिन्दगी के खालीपन और अकेलेपन का कसूरवार वह मुझे ठहराता रहा | समय के साथ-साथ उसका मेरे प्रति बर्ताव बदलता गया | वह मेरे लिए खाने की व्यवस्था करता था और मेरा काम बस उसकी बाते सुनना होता था | वह मुझे अक्सर अपने बिस्तर के बगल वाली मेज पर रखता और खुद छत पर लटके बेजान पंखे को देखते हुए कुछ कहना शुरू कर देता |
सच कहूँ तो मैं भले इंसानों की भाषा समझता हूँ , लेकिन उनकी कही हुई कोई भी बात मेरी समझ में नहीं आती थी |
दिनेश की बातें भी मेरे सर के ऊपर से जाती थी | मैं बस चुप-चाप उसकी हाँ में हाँ मिलाने के लिए ,चूं-चूं करता |
उन दिनों मैं अच्छे से समझ गया था कि कई बार इंसान को अपने आस-पास कुछ ख़ास चीजो की जरुरत सिर्फ इसलिए होती है ताकि कोई उसे सुन सके ,जिससे वह अपनी उलझनों के बारे में बात कर सके, उसको क्या खाए जा रहा है वह उसके बारे में बोल सके |
ऐसी चीजो का मिलना बहुत ही दुर्लभ होता है | और अगर मिल भी जाय तो , उसे समझकर समझाने वाला नहीं मिलता , सिर्फ सुनकर बोलने वाला नहीं मिलता है | मिलते हैं तो बस वो लोग जो दुसरे की बाते पूरी सुनने से पहले , अपनी बाते कहना शुरू कर देते हैं | बिना समझे समझाने बैठते हैं , अपनी मुफ्त की सलाह देना शुरू कर देते हैं |
मुझे पता था कि जब मैं उसे न समझ सकता हूँ और न ही उसे समझा सकता हूँ, तो क्या ही मुफ्त की सलाह देता , मैं क्या ही उसकी उलझनों को सुलझा सकता | इसलिए मैं चुपचाप ही चूं-चूं करता था |
पहले मुझे लगता था कि दिनेश मुझसे फिजूल ही ये सब बातें करता है , लेकिन ऐसा नहीं था | जब मैंने दिनेश में कई बदलाव देखे तो लगा कि कभी-कभी इंसानों को अपने आस पास सिर्फ सुनने वाला ही काफ़ी होता है | जिससे वह मन की उलझनों के बारे बात कर सके | इंसानी मन अक्सर छोटी-छोटी बातो का बवंडर बनाता है , जो अगर मन में ही रहे तो आपस में उलझती हैं | और यही उलझने ही तो इंसानों को परेशान रखती हैं | उसे चिंता की चिता पर सुलगाती रहती हैं | ऐसे में जब भी इंसान अपने मन को खाली करता है , तो मन के बवंडर में उलझी बाते सुलझने लगती हैं | वो कहते हैं ना मन चंगा तो कठौती में गंगा |
दिनेश के साथ भी ऐसा कुछ ही था ,वह इससे पहले खामोश अपने काम से मतलब रखता था , लेकिन मेरी वजह से वह अपने मन को खुल कर खोलने लगा | उसमे मैंने इस दौरान कई परिवर्तन देखे , अक्सर कमरे पर मुझसे बाते करता रहता था | आजकल मॉल में क्या हो रहा है, वह किन लोगों से मिला , अपने नए दोस्तों के बारे में बताता ,बदलते शहर के बदलाव के बारे में बात करता रहता | इस शहर में वो कैसे घुल-मिल पा रहा है , उसके बारे में कहता |
धीरे-धीरे समय इतना बीत चुका था कि उसकी भाषा के साथ-साथ मैं उसकी बातो को भी समझने लगा | इसलिए मुझे भी उसकी आदत हो गयी थी | मुझे खाना भी मिल ही रहा था , साथ ही टाइम पास के लिए दिनेश और उसके किस्से तो थे ही |
वक्त जब आगे बड़ता है तो कई बदलाव उसकी सवारी करते हैं | मेरी जिन्दगी अच्छी चल रही थी , मुझे खाने और जीने के लिए कमरे के कोनों में छिपकर नहीं रहना पड़ता था | बस इस आधे फुट के संसार में जिन्दगी बेहतरीन कट रही थी |
सब कुछ सही होने के बावजूद कुछ कमी का एहसास , मुझे वक्त ने करा ही दिया | मुझे भले ही वह सब मिल ही रहा था जिसकी मुझे जरुरत थी , लेकिन जो मैं चाहता था वह मेरे पास नहीं था | जब दिनेश कमरे पर होता तो समय का पता नहीं चलता था , लेकिन वह जब अपनी ड्यूटी पर जाता ,वक्त रेंगता हुए आगे बड़ता था |
दिनेश जब होता तो , अपने आधे फुट के पिंजरे में रहकर, मैंने उसकी बातो से एक बहुत बड़ा संसार देख लिया था | इसलिए उसके न होने से मेरा संसार इस आधे फुट के पिंजरे में सीमित हो जाता |
यही बात मुझे कुछ दिनों बाद अक्सर परेशान करने लगी , इसलिए समय के साथ-साथ मेरे अन्दर इस आधे फुट के संसार से बाहर निकलने की चाह तेज होती गयी | मैंने कई बार दिनेश की मौजदगी में बाहर निकलने की कोशिश भी कि ताकि उसे इस बात का एहसास हो कि मैं बाहर निकलना चाहता हूँ, लेकिन वो मेरी ऐसी हरकते देखकर हँसता और मेरे पास आता | मेरा मनपसंद बिस्किट मुझे देता और बिस्किट का स्वाद मेरे अन्दर की क्रान्ति को शांत कर देता |
कुछ समय बाद बिस्किट भले अन्दर की भूख को शांत कर देता , लेकिन बिस्किट का स्वाद मेरे अन्दर की क्रान्ति को ज्यादा देर तक शांत नहीं कर पाया | आखिर हर किसी की सीमा होती है और उस बिस्किट की सीमा तो नहीं , लेकिन एक्सपायर डेट आ गयी |
मेरे अन्दर की क्रान्ति इससे पहले किसी उग्र आन्दोलन का रूप लेती | दिनेश ने मुझे बताया कि उसने नौकरी छोड़ दी है, उसने मुझे उस रात बताया कि इस नौकरी से उसकी जरूरते तो पूरी हो रही हैं , लेकिन अब वक्त आ गया है कि वह जिन्दगी की चाहतों को भी पूरा करे | वे चाहते क्या थी ? उसने कभी मुझसे इस बारे में कुछ बताया नहीं , लेकिन चाहतों को पूरा करने के लिए नई और बेहतर नौकरी की जरुरत है , ये मैं समझ गया था | दूसरी नौकरी यहाँ से काफी दूर थी , इसलिए उसे जल्द ही कमरा बदलना पड़ा | दिनेश ने पहले मुझे भी अपने साथ ले जाने की बात की लेकिन बाद में खुद ही कहा मैं जाने से पहले तुम्हारी आजादी भी तुम्हे दे दूंगा |
यह सुनकर मैं बहुत खुश था | आधे फुट के छोटे से संसार में भले ही मेरी भी जरूरते पूरी हो रही थी लेकिन मेरी चाहते नहीं | मेरी चाहत सिर्फ मेरी आजादी थी | दिनेश ने जैसे ही आजादी के बारे कहा, मैंने उसी क्षण अपनी आजादी के कई ख्वाब देखना शुरू कर दिया | इस पूरे कमरे के सभी कोनो पर राज करने के सपने देखने लगा |
एक-दो दिन में दिनेश ने कमरा खाली किया तो साथ में मेरे आधे फुट के पिंजरे को भी खाली कर दिया | मेरी एक फुट की दुनिया महीनो बाद दस फुट के संसार में बदल गयी | और मुझे महसूस हुआ कि इस दस फुट के संसार में दौड़ने का कितना अलग मजा है |
अपनी आजादी की ख़ुशी में मैं अपनी भूख को भी भूल गया था | बिस्तर के नीचे मुझे एक कॉपी दिखी तो एहसास हुआ कि मेरे शरीर में सिर्फ पैर ही नहीं हैं , एक पेट भी है | जिसका ख़याल रखना भी जरुरी है |
यह कॉपी दिनेश की थी , दिनेश की डायरी | इससे पहले मैंने कभी इसे देखा नहीं , शायद वह इसे अपनी तकिये के नीचे ही रखता था , इसलिए गिर कर बिस्तर के नीचे आ गयी थी | बस क्या ? इस डायरी की मोटाई इतनी थी कि मैं आराम से कुछ हफ्तों तक अपने पेट का ख़याल रख सकता था और पेट मेरा ख़याल रख सकता था |
अगले कुछ दिन आराम और आजादी से गुजरे | मैं इन दिनों अपनी आजादी का आराम से आनंद ले रहा था | अक्सर पन्ने कुरेदने और खाने से पहले उन्हें पढ़ भी लेता था ,आखिर मैं पढ़ा-लिखा चूहा था | डायरी में लिखी गयी हर बात और किस्सों से एक ओर सफ़ेद कागज को पचाने में बड़ी मदद होती थी , तो दूसरी ओर टाइम पास भी अच्छा होता था |
दिनेश ने इस डायरी में अपने जीवन का अधूरापन लिखा था , जिसे उसने इसमें पूरा करने की कोशिश की थी | इसमें उन सारी बातो का जिक्र था , जो मुझसे और इस कमरे से जुडी हुई थी | दिनेश जिन उलझनों के बारे में मुझसे बाते किया करता था , मैं उन उलझनों का कारण अब समझ पा रहा था | मैं जितना डायरी के पन्नो को चखता , उतना ही दिनेश के करीब पहुंचता | पहले मैंने उसका दर्द सिर्फ सुना था , लेकिन उसका दर्द मैं अब समझ पा रहा था |
मैं अब समझा कि क्यों दिनेश शुरूआत में इतना खोया –खोया सा रहता था , क्यों अपने साथ वह कुछ किताबे लाया था , कैसे उसकी उलझने उसे किस कद्र परेशान करती थी, उसके जीवन पर कैसा प्रभाव डालती थी |
” क्यों हम किसी के खो जाने के ठीक पहले उसे बता नहीं पाते कि हम उन्हें खोना नहीं चाहते |” दिनेश ने पता नहीं ये लाइन किसके लिए लिखी थी | इस समय मैं भी दिनेश के लिए ऐसा ही कुछ महसूस कर रहा था | उन दिनों मेरे पास एक अच्छा साथी था , लेकिन मुझे अपनी आजादी प्यारी थी | और अब जब आजादी है तो यार की यारी बहुत याद आती है |
मुझे लगता था , दिनेश के लिए मैं सिर्फ एक खिलौना हूँ , लेकिन ऐसा नहीं था | मैंने जाने-अनजाने में उस एक नई जिन्दगी दी थी | वो चाहता था तो उस रात मुझे मार सकता था ,या फिर बाहर फेंक सकता था | लेकिन उसने ऐसा नहीं किया |
उसने मेरे बारे में लिखा था,” एक नन्हा सा रूमपार्टनर है , जो मेरी हर बात को सुनता है , मैं उससे सारी बाते कह पाता हूँ, वह चुप-चाप सुनता रहता है , मुझे कभी बाकियों की तरह सलाह नहीं देता, न ही कुछ समझाने की कोशिश करता | वह मुझे कभी गलत नहीं समझता |न मुझे रोकता है , न ही किसी बात पे टोकता है | मुझे आजादी से रहने देता है | इसलिए तो मैं भी उसे समझने लगा हूँ | उसे ऐसे कैद करके रखना मुझे भी अच्छा नहीं लगता | वह मेरे लिए खिलौना बिलकुल भी नहीं है | मैं इसे अपने साथ ले जाना तो चाहता हूँ , लेकिन ऐसे कैद करके नहीं …| ”
अब अपने बारे में अच्छी बाते सुनना कौन पसंद नहीं करता | ये पढकर उस रात के आंसू जो मेरी आँखों में थे और दिनेश की आँखों से बह रहे थे , आज फिर मेरी आँखों से बहने शुरू हो गये |
इसके बाद भी डायरी में कई पन्ने थे , लेकिन ये सारे अब कोरे थे | इन कोरे पन्नो में तेज खामोशी थी , मुझसे अब न ये पन्ने कुरेदे गये और न ही यह ख़ामोशी पचाई गयी | इसलिए मैं कुछ दिनों बाद इस दस फुट के दुनिया के बाद पूरी दुनिया को भी छोड़कर चला गया |
चला गया ! ताकि एक बार फिर वापस आ सकूँ…
……………………………………………………………………………………………………………………………………..To be continued
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