“जून का महीना और गाँव का पंदेरा “

जब  भी  जून के महीने का नाम कहीं सुनाई देता है , तो  क्या सामने आता है ? भीषण गर्मी और गर्मियों की छुट्टियाँ !

जून का महीना फिर करीब आ रहा है, गर्मी और उमस की बारिश के साथ कुछ धुंधली यादे भी आ रही हैं , जो आँखों के कोनो को भर रही हैं | पहाडो की वादियों में जहाँ शैलानियों की भीड़ बढने लगी है तो वहीं प्रवासी शहरी लोग भी पहाड़ के गाँवों में पहुँचने वाले हैं |

दीवाली- होली की एक हफ्ते की छुट्टियाँ,घर से दूर रह रहे बेटे को सिर्फ दो दिन के लिए अपनी माँ के आंचल का साया दे पाती है | एक हफ्ते की छुट्टी बता कर एक पिता, चार दिन अपने बच्चो के साथ बिताकर ,अपने पिता के पास सिर्फ दो दिन ही  बैठ पाता है |

लेकिन जून के महीने की गर्मियों की वो 35 दिनों की छुट्टियाँ ,भले ही बेटे को माँ के आंचल के साए में न ला पाए , एक बाप को अपने बाप के पास न बिठाती हो, लेकिन गाँव भर के सूनेपन और दादा-दादी के खालीपन को दूर करने उनके पोते-पोतियों को ले आती हैं | नानी को कहानी सुनाने को कहकर उन्हें तंग करने , उनकी नाती-नातिन और दादी से दो चुटियाँ बंधाने को कहकर , उन्हें व्यस्त रखने उनकी पोतियाँ घर आती  है | नाना का हुक्का और दादा की लाठी छुपाकर , दोनों हाथो से उनकी एक अंगुली पकडकर , उन्हें गाँव भर घुमाने उनके नाती और पोते आते हैं |

पूरे साल भर ,शहर के किराए के घरों में कैद मासूम जिन्दगियां , गाँव में जीने, रिहाई पर आती हैं | शहर में कोई भी गर्मियों का इतनी बेसब्री से इन्तेजार नहीं करता है , जितने ये दादा-दादी के पोते-पोतियाँ करते हैं | दूसरी तरफ सिर्फ गर्मी का नाम सुनते ही , बाकी बचे शहर को पसीना आ जाता है |

इन पोते-पोतियों और नाती-नातिन को घर ले जाने की जिम्मेदारी हुआ करती थी , इनकी माताओं की, जो ज्यादातर  गाँव में रहने वाली किसी जेठानी की देवरानी होती  या फिर किसी सास की बहुरानी | जून की छुट्टियों की बात करीब आते ही जहाँ ,, बच्चों के चेहरे खिलने लगते वहीँ देवरानी, बहुरानी के चेहरे पिघलने लगते | देवरानी को  जेठानी के बची धाण की चिंता शुरू होने लगती , जो उसे हर साल गाँव जाकर करनी पडती,  वहीँ बहुरानी को सास की डांट की अभी से सताने लगती | अपने बच्चो की ख़ुशी के लिए, या यूँ कहे उनके मन की जीत के लिए , अपने मन को मार देती है | सिर्फ एक ही महीने की तो बात है , कहकर सबका सामान पैक करने लगती है |

जून के पहले ही हफ्ते में , गाँव भरा-भरा सा दिखने लगता है | गाँव का पंचायती चौक , जो पूरे साल भर के बुजुर्ग लोगो के साथ रह-रह कर ,खुद  बुढ़ापे की चादर ओढने लगा है, नौनिहालों के बचपन को खेलता-कूदता देख, खुद एक बच्चा दिखाई देने लगता है|  गाँव के बीचो-बीच से होकर जाने वाला रास्ता, अब कहीं जीवित हो उठता है | गाँव के खेतो में हलचल बढने लगती है |

सबसे जरूरी गाँव के पंदेरे में अचानक भीड़ बढने लगती है | साल भर , लगातार बहने वाला पानी , अकेले चुपचाप , बिना किसी से कुछ बात किये जो बहता जाता था ,उसका भी जी मचलने लगता है | बच्चो को भिगोता , अपनी चिकनाहट से शरारत करता,  जानबूझकर उन्हें धडाम से गिराता , और खिल के हंसने लगता |

आजकल जहाँ गाँव की रौनक लौट आती , वही पंदेरे के पानी चमक और चिकनाहट भी लौट आती |

गाँव के खेतो में इन दिनों खरीफ़ की फसलो की गुड़ाई का काम रहता | कुछ दिनों के लिए  सीढ़ीदार खेतो में हर 1-2 खेत छोडकर जेठानी-देवरानी और सास-बहुरानी की जोड़ियाँ खेतों में गुड़ाई करते हुए दिखाई देते हैं | दोपहर होते ही गाँव के चारों ओर के खेतों से जेठानी-देवरानी , सास-बहुरानी आदि औरतों की जोड़ियाँ या फिर समूह , गाँव के धारे में कट्ठा होते हैं | पानी पीते हुए , हाथ-मुह धोते हुए , आपस में कुछ जानकारियाँ ,बातों से साझा करती हैं | शहर से आई हुई रिश्ते-नाते से छोटी-बड़ी औरते गाँव की अन्य औरतों का अभिवादन करती हैं | इस बार कितनो दिनों के लिए गाँव आये हो ? बच्चे भी साथ में आये हैं या नहीं ? खेतो में अभी कितना काम बचा है ? भैंस अबके आषाढ़ को ब्याहने वाली है ?

इस सब बातो के आलावा अप्रैल की बिखोती में नई -नवेली बौजी का चेहरा , खेतों में काम करके लाल पड़ जाता हैं | नई-नई शादी की वजह से दिखने वाली चेहरे की रौनक , पसीने में बहती हुई दिखाई दे रही होती है | जिस बात को आधार बनाकर पंदेरे में नहाने के लिए आये हुए अधनंगे देवर ,खूब हँसी-मजाक करते |

धीरे -धीरे अब यह भीड़ कम होने लगती | बस गाँव के कच्चे नौजवानों की छोटी भीड़ ही रहती है | कच्चे नौजवान , यानी कि जिनकी गलमुछें , अब गोरे -चिकने गालों पर कब्ज़ा कर रही होती हैं | ये सिर्फ नहाने के लिए यहाँ नहीं आये हुए होते हैं , अपने हम-उम्र साथी जो बाल काटने का हुनर रखता है , उससे बाल कटवाने भी आते हैं | आपस में गप्पे लड़ाते हुए , जब सबके बाल कट जाते हैं , तब सभी नहाने के लिए पंदेरे के ठन्डे पानी के धारे के नीचे बैठ जाते |

गाँव की दोपहर के लिए यह पंदेरे कुछ देर के लिए शांत हो जाता | सभी जहाँ अपने घरों में आराम कर रहे होते तो सुबह से गाँवभर की किलकिलाहट देखकर ,, पंदेरे को भी कुछ देर के लिए आराम करने का समय मिल जाता |

शाम होने पर , अब शहर से आये हुए बच्चे , गाँव के बच्चो के साथ मिलकर ,एक-दुसरे को भिगाना शुरू कर देते | हँसते-खेलते हुए एक-दुसरे को भिगोते हुए जब ये फ़िसलते तो ये खिलखिलाकर हँसते और खेल जारी रखते | यह तब तक जारी रहता जब तक उन्हें कोई टोकता या फिर डांटता नहीं |

कुछ देर बाद , गाँव की महिलाए अपनी घास की कंडी के साथ , पंदेरे को कब्जा लेती | गाँव की औरतो का सुरीला शोर फिर से , सबके ध्यान को आकर्षित करता है |

इसी बीच गले में शिवजी के नाग वासुकी की तरह तौलिया लपेटे , गाँव के लड़के लोगो के समूह , अपनी गगरी आदि बर्तनों के साथ  ठण्डे पानी को लेने आते | गगरी आदि बर्तनों को एक जगह पर रखते और जब तक भीड कम हो , तब तक अपनी गप्पे शुरू कर देते |

कभी न खत्म होने वाली गप्पे शुरू हो जाती | जोर -जोर के ठहाके लगाये जाते | धीरे-धीरे भीड़ कम हो जाती लेकिन एक कोने पर चल रही चौपाल अपने चरम पर होती | रात का अँधेरा जब गहरा होने लगता है , तब कहीं जाके याद आता कि इन बातो के अलावा अपना एक घर भी है ,, जहाँ हमें पंदेरा का ठंडा पानी पहुँचाना है |

जून का महीना खत्म होते-होते बरसात का मौसम तेज हो जाता है , वहीँ आधा गाँव फिर से खाली होने लगता है | सभी अपने -अपने शहरो कि छोटी-बड़ी जिंदगियों को जीने चले जाते हैं | साथ में ढेर सारा सामान और उसके ऊपर यादों का बोझ ………………………………………

NOTE :::: अब ये दृश्य दिखने कम हो गये हैं !!!

……………………………………………………………………………………………………………………………………….जारी ……..

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