ओ से ओखली : उर्ख्याली (ओखली)

“पा…….पा! पा…पा !” जूली रोते-रोते चिल्लाई | पास में पापा फ़ोन पर बात कर रहे थे | संदीप की नजर जोर से रो रही अपनी बेटी पर पड़ी जिसने अपनी रोने की आवाज से पूरा घर अपने सिर पर रख लिया | फोन पर बात ख़त्म करते हुए , अपनी बेटी जूली के पास आया | “क्या हुआ ! अभी तो आप इतने अच्छे से खेल रहे थे ,क्या हुआ चोट लग गयी क्या ?” संदीप के प्यार से पूछने पर जूली ने रोते रोते  सिर हिलाते हुए हामी भरी | साथ ही जब संदीप ने अपनी गुड़िया जैसी 6 साल की बेटी को गोदी में उठाया तो ,जूली ने हाथ से आंगन के कोने पर एक पत्थर पर इशारा किया |

रोते हुए उसने बताया कि उसका पाँव उस पत्थर के छेद में चला गया , जिसके कारण उसे चोट आई | संदीप अपनी बेटी को गोदी में लेकर चुप करा चुका था । जूली का रोना बंद हो चुका था , लेकिन सिसकियाँ  और उसके साथ हिचकियाँ अब भी जारी थी |

संदीप उस पत्थर को उँगली करके उसे डराने-धमकाने लगा ,कि उसने उसकी बेटी का घुटना कैसे लगा दिया | पापा को यूँ उसकी तरफदारी करते हुए और जिसने उसे चोट पहुंचाई उसे डांटते हुए देखकर जूली के चेहरे पर मुस्कुराहट लौट आई |

इस मुस्कुराहट के साथ जूली का एक सवाल आया ,” पापा ! ये क्या है ? ये दादी के घर, आंगन में पत्थर पर इतना बड़ा छेद क्यों हैं?”

“बेटा यह  ओ से ओखली है | यह कभी आँगन की रानी हुआ करती थी । इसे हम बचपन में उर्ख्याली भी कहते थे |” संदीप के मुंह से जैसे ही बचपन और उर्ख्याली  के दो शब्द एक साथ आये, उसका मन उसे ,उसके बचपन में ले गया | उन यादो-किस्सों में जहाँ आंगन में वो खेल रहे होते थे ,और आंगन के एक कोने में चाची,ताई आदि आस पास की औरते धान-मंडुए आदि कि कुटाई कर रहे होते थे |

ओखली या उरख्याली

एक ओर उनका शोर होता , तो दूसरी ओर गाँव भर की बातों-घटनाओं से जुडी हुई बाते करने के लिए आज इन्हें एक नई जगह मिल गई होती  | गाँव की महिलाओं की एक ख़ास बात होती थी , कठिन और बड़े दिखने वाले कामो को करते दौरान , वो काम करने की क्रिया में वो सहजता ले आते थे ,  जिससे कोई भी काम आसानी से पूरे हो जाते |

 अब चाहे वह सर्दियों में दूर जंगल से भारी भरकम घास की गठेरी लाना हो या फिर जेठ के गर्म दिनों में  लम्बे-बड़े खेतो की निराई-गुड़ाई करना  हो | आपस में काम मिल जुट के , बातो-बातो में कब खत्म हो जाते ,इसकी भी खबर सिर्फ उनके अवचेतन को होती |

 अनाज (धान , मडुआ , झंगोरा आदि ) की कुटाई के दौरान हर किसी के काम बंटे हुए होते | सबसे बुजुर्ग या यूँ कहें सबसे अनुभवी महिला का काम ओखली में थोडा-थोडा करके अनाज डालने का काम होता | यदि अनाज ओखली से बाहर गिरे तो उसे बाबलू के झाड़ू से अंदर धकेलने या बंटोरना होता | साथ ही उसके पास अधिकार होता कि  वो अनाज को गंज्याली (मूसल) से कूट रही शेष महिलाओं को डांट सके |

गंज्याली एक 5-6 फुट का डंडा सा होता , जिसके दोनों गोल सिरों के चारो ओर लोहे कि पट्टी चढ़ी रहती थी | गंज्याली को बीच उसकी कमर से दोनों हाथो से पकडकर , ओखली में रखे अनाज पर मारना होता था | जिस दौरान ओखली और गंज्याली के बीच अनाज के आने से उसके चारो लगा भूसा अलग हो जाता था |

उर्ख्याली में धान, चांवल में बदल जाती|  झंगोरा भी पींडा बनाने के लिए तैयार हो जाता था | मडुआ,चक्की में पिसकर कोड़े के आटे में बदलने के लिए यहीं से तैयार हो जाता था |

ओखली में गंज्याली मारते हुए, दो महिलाएं  एक-एक करके , मुंह से “स्हु…..स्हु” की आवाज निकालते |यह काम एक लय में ऐसे होता कि  पास में खेल रहे संदीप की नजरे इधर हो जाती , वो देखता कि बिना गंज्याली को एक-दुसरे से टकराए ,उसकी दीदी और चाची उर्ख्याली में धान कि कुटाई कैसे कर रही हैं|   

ओखली में इस काम की शुरुआत में अक्सर 2-3 महिलाए ही होती , लेकिन शाम होते-होते यहाँ पर महिलाओं का एक गुट इकठ्ठा हो जाता | आंगन के दूसरी ओर गाँव के खेतो का रास्ता था , खेतो से घास आदि लेकर वापस आ रही गाँव की ताई-चाची , दादी-भाभी आदि अपनी घास की कंडी या गठरी  दीवार पर टिकाते और इस सभा में अपनी सक्रिय भागीदारी देने के लिए तैयार हो जाती |

हे दीदी , हे भूली से शुरू होने वाली रन्त-रैबार,सन्त-खबर की बाते गाँव भर के सारे हाल-समाचार सबसे साझा कर देती |

किस की भैंस ब्याहने वाली है , किसकी बीमारी ठीक हुई है , किसका बेटा शहर से गाँव छुट्टी आया है और किसको लड़के वाले देखने आये थे  ….इस तरह की गाँवभर  की अच्छी-बुरी, छोटी-बड़ी बातो का जिक्र इस उर्ख्याली के चारों ओर होता | गाँव में इस तरह की बाते हर जगह स्वतः ही होती थी,  जहाँ भी 3-4 महिलाए एक हुई नहीं, कि वहां पर उनकी बाते शुरू हो जाती | चाहे गुड़ाई-निराई के समय खेतो में हो , गाँव के मंगेरे/पंदेरे पर हो , जंगल से घास लाते हुए किसी पेड़ की छाँव में हो|

खैर….! उर्ख्याली के चारो ओर हो रही बातो की आवाज में , नई बहुओ की गंज्याली को उर्ख्याली में मारते हुए, “स्हु, स्हु…” की आवाज अब कहीं गुम हो जाती | इन नइ-नवेली दुल्हनो की स्हु, स्हु आवाज में एक दर्द होता, जिसमे थकन और पीड़ा नहीं ,बल्कि उनकी मायके की ताज़ी यादे होती | जहाँ वो खुद को धान की कुटाई करते देखती , लेकिन किसी की बहु , भाभी ,चाची बनकर नहीं , बल्कि किसी की बेटी , ननद ,भतीजी बनकर ….|

अभी आखिरी बार मायके से लौटने पर, यूँ ही उर्ख्याली में च्युड़े भी कूटे थे  | धान को भिगोकर, भूनकर और फिर कूटकर स्वादिस्ट,खुशबूदार च्युड़े तैयार किये थे|जिन्हें वह ससुराल लाइ थी , जिसे खाकर पहली बार सास ने उससे बिना डांटे बात की थी , उसकी तारीफ़ की थी |

संदीप को आज भी अच्छी तरह याद है , खेत से वापस आ रही, गाँव की ताई जैसे ही देखती कि धान कि कुटाई हो रही है , तो झट से अपनी घास की कंडी दीवार पर टिका कर ,आदतन धान की कुटाई से बने चांवल खाने लगती |

संदीप की माँ जब यह देखती तो चावल खाने वाली ताई को खीझते हुए ,उन्हें रोकने का झूठी कोशिश करती, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती |

धीरे-धीरे जब रुमुक होने लगती , छनियों (गौशाला) से गाय-भैंसों की आवाजे आने लगती , जो अपनी गौस्यानी को पुकारने लगती | इतने में सभी अपनी-अपनी कंडी और गठरी पकड़कर घर की ओर चलना शुरू कर देती |

इधर कुटी हुई धान को सुप्पे से फेंटकर , एक कट्टे या थैले में रख दिया जाता |

बातो-बातो में , उर्ख्याली में कूटने की धाण अब लगभग पूरी हो चुकी होती लेकिन ताई-चाची, दादी लोगों की बाते गहराई पकड लेती थी | अब उर्ख्याली उन तमाम घटनाओं कि गवाहदार बन जाती , जो गाँव की महिलाओं का छोटा सा गुट सुना रहा होता था | इस समय की बातो में एक गंभीरता आ जाती , जो सबकी जबान से आने वाली धीमी आवाज और चेहरे के हाव-भाव में साफ़ दिखती थी |

जैसे ही गोधुलि शाम धीरे-धीरे , रात के अँधेरे में तब्दील होने लगती| यह गुट अब टूटकर छोटा होने लगता | यदि यहाँ पर एक परिवार के दो सदस्य , देवरानी-जेठानी हैं उनमें से एक को जल्दी घर पहुचना होता | कुछ धीरे-धीरे पूरी तरह अँधेरा होने और ताई की गंभीर बातो के खत्म होने से पहले ,घर की ओर निकल पड़ती |

कभी-कभी अँधेरा हो जाता , लेकिन कुछ बाते होती  जो पूरी होती ही नही थी | उन्हें मज़बूरी में पूरा करना होता | जैसे उर्ख्याली के आस-पास बिखरे धान-चांवल के दानो को साफ़ समेटा जाना जरुरी होता, वैसे ही  उर्ख्याली के चारो ओर बिखरी बातो को समेटना भी जरुरी होता |

जब सारी बातें और चांवल समेट लिए जाते हैं, तब उर्ख्याली फिर से अकेली पढ़ जाती | आज की शाम ने इसे भी थका दिया होता | अब इसका काम रात को आराम करते हुए , रात को होने वाली वर्षा को मापना होता |

संदीप को अच्छी तरह याद है , जब बाते और चांवल के दाने समेटे जा रहे थे , जब गोधुलि शाम ,अँधेरी रात में तब्दील होने वाली थी , जब उनकी भैंस कुसुमलता रम्भा रही थी , ठीक उसी समय  संदीप और उसके दोस्तों के आको-बाको , आइस-बाईस के खेल अब लुकम छुपाई में बदल जाते थे|

अँधेरे में छुपना बहुत आसान होता था, और ढूँढना मुश्किल | इसलिए छुपने वाला हमेशा जीत रहा होता था, तब तक ……जब तक घरवालो की तरफ से छुपने वालों को कोई पुकारता नहीं |

शुरुआत में घर से आ रहे इस बुलाए को आसानी से नजरंदाज किया जाता लेकिन अँधेरा गहरा होते ही जैसे ही माँ गोशाला से घर वापस आती, दीदी से पूछती कि संदीप अभी आया नहीं क्या  !!

तो इसके बाद, क्या ! जैसे उस वक्त , अँधेरे और घर से आ रहे इस बुलावे को बिलकुल भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था |

ठीक उसी तरह इस समय जूली के सवालों और जिज्ञासा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता | संदीप के मन के द्वारा ,इस सूक्ष्म समय में की गयी समय-यात्रा की दास्तान ही जूली के सवालों का जवाब दे पाई और उसकी जिज्ञासा को शांत कर पाई |

एक समय था जब उरख्याली का का पहाड़ के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता था । मंगल कार्यो की शुरुआत ही कभी , उरख्याली-आँगन की रानी को दुल्हन की तरह सजाने से की जाती थी । लेकिन आज यह घर के आँगन में बरसाती मेढ़कों के आश्रय-स्थल से ज्यादा कुछ नहीं लगते हैं।

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